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ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजे लगभग आ चुके हैं। अब तक चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस 62 सीटों पर आगे चल रही थी। वहीं, भाजपा और एआईएमआई 43-43 सीटों पर बढ़त बनाए हुए थीं। इसके अलावा कांग्रेस की झोली में दो सीटें जाती हुई नजर आ रही हैं। इन नतीजों ने एक बार फिर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के बढ़ते स्ट्राइक रेट की झलक दिखा दी है। दरअसल, हम गौर करें तो बिहार उपचुनाव से लेकर बिहार विधानसभा चुनाव और अब हैदराबाद नगर निगम चुनाव तक एआईएमआईएम का स्ट्राइक रेट लगातार बढ़ा है। हालांकि, हैदराबाद की सफलता को घर में मिली जीत माना जा सकता है, लेकिन एआईएमआईएम ने बिहार जैसी हिंदी बेल्ट में भी कामयाबी का स्वाद चखा। आखिर इसकी वजह क्या है, सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक या कुछ और या इन सबका कनेक्शन कुछ पुराना है, आइए जानते और समझते हैं इस रिपोर्ट में...
सबसे पहले हम एआईएमआईएम यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के इतिहास से रूबरू हो लेते हैं। दरअसल, एआईएमआईएम भले ही असदुद्दीन ओवैसी के जोरदार भाषणों की वजह से लोगों की नजरों में आई हो, लेकिन इसका वजूद आजादी से पहले का है। इस पार्टी का गठन साल 1927 में हुआ और इसका नाम था मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम। उस वक्त हैदराबाद के निजाम नवाब मीर उस्मान अली खान की सलाह पर हैदराबाद एस्टेट के किलेदार नवाब महमूद नवाज खान ने यह पार्टी बनाई थी। उस दौर में इसे प्रो-निजाम पार्टी माना जाता था, जिसका मकसद भारत के एकीकरण की जगह मुस्लिम प्रभुत्व स्थापित करना था। हालांकि, साल 1957 तक भारतीय राजनीति में इस पार्टी का कोई खास अस्तित्व नहीं रहा। दरअसल, 1948 में इस पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया और तत्कालीन अध्यक्ष कासिम रिजवी को जेल में डाल दिया गया। 1957 में उन्हें रिहा किया गया, लेकिन इस शर्त पर कि वह पाकिस्तान में ही रहेंगे। इसके बाद उन्होंने पार्टी की कमान एक वकील अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंप दी और उन्होंने इसे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन नाम दे दिया। एआईएमआई का इतना इतिहास बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि पार्टी की विचारधारा और सोच पता चले। इससे ही एआईएमआईएम की सफलता की असल वजह और वोट बैंक का आधार हमें पता चल सकेगा।
अहम बात यह है कि साल 2012 से पहले तक एआईएमआईएम सिर्फ हैदराबाद तक ही सिमटी रही। दरअसल, पार्टी ने 1960 में पहला चुनाव हैदराबाद नगर निगम का लड़ा। एआईएमआईएम को राजनीति में लाने का काम अब्दुल वाहिद ओवैसी के बेटे सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने किया था। 1962 में सलाहुद्दीन ने पत्थरगढ़ी विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। इसके बाद 1967 में उन्होंने चारमीनार सीट पर जीत हासिल की तो 1972 में याकूतपुरा पर कब्जा जमा लिया। हालांकि, 1978 में वह दोबारा चारमीनार की ओर लौटे और उसे जीत लिया। 1994 में सलाहुद्दीन के हाथ सबसे बड़ी कामयाबी लगी और उन्होंने हैदराबाद लोकसभा सीट जीत ली। वह 2004 तक इस सीट पर बरकरार रहे और इसके बाद एआईएमआईएम की जिम्मेदारी असदुद्दीन ओवैसी पर आ गई। इसके बाद 2012 में पहली बार एआईएमआईएम हैदराबाद से बाहर निकली और महाराष्ट्र के नांदेड़-वघाला नगर निगम के चुनावी मैदान में उतर गई। उस दौरान पार्टी ने 13 सीटों पर जीत भी हासिल की।
महाराष्ट्र के बाद एआईएमआईएम ने 2013 में कर्नाटक के स्थानीय चुनाव लड़ा और 6 सीटें अपने नाम कीं। इसके बाद 2019 तक एआईएमआईएम अलग-अलग राज्यों में निकाय चुनाव लड़कर अपना वजूद मजबूत करती रही। इनमें 2018 के दौरान उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव भी शामिल है, जहां पार्टी ने 78 सीटों पर ताल ठोंकी थी और 31 पर जीत हासिल की थी।
हैदराबाद के बाद दूसरे राज्यों के निकाय चुनावों में मिली सफलता के बाद एआईएमआईएम ने दूसरे राज्यों की विधानसभा सीटों पर नजरें जमानी शुरू कर दीं और इसकी शुरुआत बिहार विधानसभा की किशनगंज सीट पर 2019 में हुए उपचुनाव से हुई। यहां एआईएमआई ने जीत दर्ज की और हिंदी बेल्ट की राजनीति में अपना खाता खोल लिया। इसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में पार्टी ने 20 सीटों पर ताल ठोंकी और 5 पर जीत हासिल की। पार्टी के इसी स्ट्राइक रेट का नजारा अब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भी देखने को मिला। यहां पार्टी ने 51 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 43 सीटों पर बढ़त बना रखी है। अहम बात यह है कि 2009 और 2016 के निगम चुनाव में एआईएमआईएम सभी 150 सीटों पर लड़ी थी। तब पार्टी ने क्रमश: 43 और 44 सीटें जीती थीं।
पहले बिहार उपचुनाव, फिर बिहार विधानसभा चुनाव और अब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव में एआईएमआई की सफलता ओवैसी के बढ़ते स्ट्राइक रेट को दिखा रहे हैं। इन नतीजों से अब तक यह स्पष्ट है कि ओवैसी सिर्फ उतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ने को वरीयता दे रहे हैं, जितने पर पार्टी अच्छी तरह परफॉर्म कर सके। इसके लिए वह मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर ज्यादा फोकस करते हैं, जिससे उनका सफलता का ग्राफ ऊपर चढ़े। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि असदुद्दीन ओवैसी देशभर में मुस्लिमों को यह जताना चाहते हैं कि मुस्लिमों की भलाई के लिए अब अगर कोई पार्टी है तो वह एआईएमआईएम ही है। इसके अलावा ओवैसी अपनी जनसभाओं में एक सवाल बार-बार जरूर पूछते हैं कि बाकी दलों ने मुस्लिमों के लिए क्या किया? इसका असर यह है कि पिछले चुनावों में मुस्लिम वोटर्स कांग्रेस और राजद जैसे अपने परंपरागत दलों का साथ छोड़कर ओवैसी के साथ खड़े नजर आए। अब ओवैसी पश्चिम बंगाल और यूपी विधानसभा चुनाव में ताल ठोकने का दावा कर चुके हैं तो देखना रोचक होता कि वह दोनों राज्यों की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे या पहले की तरह चुनिंदा सीटों पर ही दांव खेलेंगे। इसके अलावा देखना यह भी होगा कि अगर वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो क्या उनका यह स्ट्राइक रेट बरकरार रहेगा?
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजे लगभग आ चुके हैं। अब तक चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस 62 सीटों पर आगे चल रही थी। वहीं, भाजपा और एआईएमआई 43-43 सीटों पर बढ़त बनाए हुए थीं। इसके अलावा कांग्रेस की झोली में दो सीटें जाती हुई नजर आ रही हैं। इन नतीजों ने एक बार फिर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के बढ़ते स्ट्राइक रेट की झलक दिखा दी है। दरअसल, हम गौर करें तो बिहार उपचुनाव से लेकर बिहार विधानसभा चुनाव और अब हैदराबाद नगर निगम चुनाव तक एआईएमआईएम का स्ट्राइक रेट लगातार बढ़ा है। हालांकि, हैदराबाद की सफलता को घर में मिली जीत माना जा सकता है, लेकिन एआईएमआईएम ने बिहार जैसी हिंदी बेल्ट में भी कामयाबी का स्वाद चखा। आखिर इसकी वजह क्या है, सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक या कुछ और या इन सबका कनेक्शन कुछ पुराना है, आइए जानते और समझते हैं इस रिपोर्ट में...
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आजादी से पहले बनी थी एआईएमआईएम
हैदराबाद
- फोटो : Facebook/Shahab Alam
सबसे पहले हम एआईएमआईएम यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के इतिहास से रूबरू हो लेते हैं। दरअसल, एआईएमआईएम भले ही असदुद्दीन ओवैसी के जोरदार भाषणों की वजह से लोगों की नजरों में आई हो, लेकिन इसका वजूद आजादी से पहले का है। इस पार्टी का गठन साल 1927 में हुआ और इसका नाम था मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम। उस वक्त हैदराबाद के निजाम नवाब मीर उस्मान अली खान की सलाह पर हैदराबाद एस्टेट के किलेदार नवाब महमूद नवाज खान ने यह पार्टी बनाई थी। उस दौर में इसे प्रो-निजाम पार्टी माना जाता था, जिसका मकसद भारत के एकीकरण की जगह मुस्लिम प्रभुत्व स्थापित करना था। हालांकि, साल 1957 तक भारतीय राजनीति में इस पार्टी का कोई खास अस्तित्व नहीं रहा। दरअसल, 1948 में इस पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया और तत्कालीन अध्यक्ष कासिम रिजवी को जेल में डाल दिया गया। 1957 में उन्हें रिहा किया गया, लेकिन इस शर्त पर कि वह पाकिस्तान में ही रहेंगे। इसके बाद उन्होंने पार्टी की कमान एक वकील अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंप दी और उन्होंने इसे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन नाम दे दिया। एआईएमआई का इतना इतिहास बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि पार्टी की विचारधारा और सोच पता चले। इससे ही एआईएमआईएम की सफलता की असल वजह और वोट बैंक का आधार हमें पता चल सकेगा।
2012 से पहले तक सिर्फ हैदराबाद की पार्टी
हैदराबाद
- फोटो : Facebook/S NAik
अहम बात यह है कि साल 2012 से पहले तक एआईएमआईएम सिर्फ हैदराबाद तक ही सिमटी रही। दरअसल, पार्टी ने 1960 में पहला चुनाव हैदराबाद नगर निगम का लड़ा। एआईएमआईएम को राजनीति में लाने का काम अब्दुल वाहिद ओवैसी के बेटे सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने किया था। 1962 में सलाहुद्दीन ने पत्थरगढ़ी विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। इसके बाद 1967 में उन्होंने चारमीनार सीट पर जीत हासिल की तो 1972 में याकूतपुरा पर कब्जा जमा लिया। हालांकि, 1978 में वह दोबारा चारमीनार की ओर लौटे और उसे जीत लिया। 1994 में सलाहुद्दीन के हाथ सबसे बड़ी कामयाबी लगी और उन्होंने हैदराबाद लोकसभा सीट जीत ली। वह 2004 तक इस सीट पर बरकरार रहे और इसके बाद एआईएमआईएम की जिम्मेदारी असदुद्दीन ओवैसी पर आ गई। इसके बाद 2012 में पहली बार एआईएमआईएम हैदराबाद से बाहर निकली और महाराष्ट्र के नांदेड़-वघाला नगर निगम के चुनावी मैदान में उतर गई। उस दौरान पार्टी ने 13 सीटों पर जीत भी हासिल की।
इस तरह बढ़ा एआईएमआईएम का काफिला
असदुद्दीन ओवैसी
- फोटो : ANI
महाराष्ट्र के बाद एआईएमआईएम ने 2013 में कर्नाटक के स्थानीय चुनाव लड़ा और 6 सीटें अपने नाम कीं। इसके बाद 2019 तक एआईएमआईएम अलग-अलग राज्यों में निकाय चुनाव लड़कर अपना वजूद मजबूत करती रही। इनमें 2018 के दौरान उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव भी शामिल है, जहां पार्टी ने 78 सीटों पर ताल ठोंकी थी और 31 पर जीत हासिल की थी।
...ऐसे हुई 'बड़ी मछली' फंसाने की शुरुआत
असदुद्दीन ओवैसी
- फोटो : ANI
हैदराबाद के बाद दूसरे राज्यों के निकाय चुनावों में मिली सफलता के बाद एआईएमआईएम ने दूसरे राज्यों की विधानसभा सीटों पर नजरें जमानी शुरू कर दीं और इसकी शुरुआत बिहार विधानसभा की किशनगंज सीट पर 2019 में हुए उपचुनाव से हुई। यहां एआईएमआई ने जीत दर्ज की और हिंदी बेल्ट की राजनीति में अपना खाता खोल लिया। इसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में पार्टी ने 20 सीटों पर ताल ठोंकी और 5 पर जीत हासिल की। पार्टी के इसी स्ट्राइक रेट का नजारा अब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भी देखने को मिला। यहां पार्टी ने 51 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 43 सीटों पर बढ़त बना रखी है। अहम बात यह है कि 2009 और 2016 के निगम चुनाव में एआईएमआईएम सभी 150 सीटों पर लड़ी थी। तब पार्टी ने क्रमश: 43 और 44 सीटें जीती थीं।
क्यों बढ़ रहा ओवैसी का स्ट्राइक रेट?
असदुद्दीन ओवैसी
- फोटो : ANI
पहले बिहार उपचुनाव, फिर बिहार विधानसभा चुनाव और अब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव में एआईएमआई की सफलता ओवैसी के बढ़ते स्ट्राइक रेट को दिखा रहे हैं। इन नतीजों से अब तक यह स्पष्ट है कि ओवैसी सिर्फ उतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ने को वरीयता दे रहे हैं, जितने पर पार्टी अच्छी तरह परफॉर्म कर सके। इसके लिए वह मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर ज्यादा फोकस करते हैं, जिससे उनका सफलता का ग्राफ ऊपर चढ़े। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि असदुद्दीन ओवैसी देशभर में मुस्लिमों को यह जताना चाहते हैं कि मुस्लिमों की भलाई के लिए अब अगर कोई पार्टी है तो वह एआईएमआईएम ही है। इसके अलावा ओवैसी अपनी जनसभाओं में एक सवाल बार-बार जरूर पूछते हैं कि बाकी दलों ने मुस्लिमों के लिए क्या किया? इसका असर यह है कि पिछले चुनावों में मुस्लिम वोटर्स कांग्रेस और राजद जैसे अपने परंपरागत दलों का साथ छोड़कर ओवैसी के साथ खड़े नजर आए। अब ओवैसी पश्चिम बंगाल और यूपी विधानसभा चुनाव में ताल ठोकने का दावा कर चुके हैं तो देखना रोचक होता कि वह दोनों राज्यों की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे या पहले की तरह चुनिंदा सीटों पर ही दांव खेलेंगे। इसके अलावा देखना यह भी होगा कि अगर वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो क्या उनका यह स्ट्राइक रेट बरकरार रहेगा?