भारत के पास एक दरोगा ऐसा है, जिससे पाकिस्तान घबराता है तो चीन के रणनीतिकार भी सावधान रहते हैं। चाहे देश की आंतरिक सुरक्षा का संकट हो या बाहरी, इस दरोगा को अंतिम इलाज के रूप में देखा जाता है। कोई और नहीं देश के पांचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की बात हो रही है। अजीत डोभाल देश की वह शख्सियत बन चुके हैं, जिन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय से रक्षात्मक दृष्टिकोण की परंपरा को रक्षात्मक आक्रामक नीति में बदलकर मोदीवाद के सूत्रधार का दर्जा पा लिया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के बाबत डॉक्टरीन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अजीत डोभाल ने कामकाज में काफी इजाफा कर लिया है। वह देश के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं जो आंतरिक से लेकर सुरक्षा के हर मामले में सक्रिय हैं। चाहे पूर्वी दिल्ली में दंगे के बाद लोगों के बीच में जाकर विश्वास बहाली का प्रयास हो या जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने, राज्य की वैधानिक स्थिति में बदलाव के बाद लोगों का विश्वास जीतने का प्रयास। इराक के तिकरित में आईएसआईएस के चंगुल में फंसी 46 भारतीय नर्सों का मामला हो या म्यांमार की सीमा में घुसकर सैन्य ऑपरेशन। 2016 में नियंत्रण रेखा पार करके पाक अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक रही हो या फिर 2019 में ऑपरेशन बालाकोट। अजीत डोभाल सभी में सक्रिय रहे हैं।
पाकिस्तान के खिलाफ बदली डॉक्टरीन
भारत की नीति थी कि पहले हमला नहीं करेंगे। पड़ोसी देशों की संप्रभुता का सम्मान करेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसी नीति पर चलते हुए कारगलि संघर्ष के दौरान सेना को नियंत्रण रेखा पार करने की इजाजत नहीं दी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 26 नवंबर 2008 को मुंबई में घातक आतंकी हमले के बाद भी कदम भींचकर रह गए थे। लेकिन उरी में सैन्य शिविर पर आतंकी हमले के बाद भारत ने 2016 में रक्षात्मक बने रहने का चोला उतारकर फेंक दिया। भारतीय सैन्य बलों के पैरा कमांडो ने बेहद सूझ-बूझ के साथ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे जटिल आपरेशन को अंजाम दिया। ऐसा आपरेशन जिस पर देश के भीतर और बाहर भी लोगों को काफी समय तक विश्वास कर पाने में समय लगा। दूसरी बार फरवरी 2019 में पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमले के बाद वायुसेना के आपरेशन बालाकोट ने बचीखुची कसर पूरी कर दी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इसके सूत्रधारों में थे और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सार्वजनिक मंच से यह कहने में संकोच नहीं हुआ कि भारत घुसकर मारना भी जानता है।
चीन के साथ आउट ऑफ टर्न प्रयास
2017 में भारत और चीन के सैनिकों के बीच में डोकलाम में तनातनी हुई। यह गतिरोध पूरे 70 दिनों तक रहा। तब विदेश सचिव एस जयशंकर थे। चीन में भारत के राजदूत विजय केशव गोखले थे। एनएसए अजीत डोभाल ने चीन के पास एक संदेश भिजवाने की योजना पर काम किया कि डोकलाम के अलावा दोनों देशों की और भी दुनिया है। दोनों के अपने-अपने बड़े हित हैं। इसी के साथ भारत ने चीन के साथ एसे तनावपूर्ण हाल में ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन से खुद का पैर खीचने का संदेश दिया।
विदेश मंत्रालय के कूटनीति के जानकार, वर्तमान में विदेश मंत्री एस.जयशंकर और तत्कालीन चीन के राजदूत और बाद में विदेश सचिव विजय केशव गोखले इसके लिए अजीत डोभाल की तारीफ करने से नहीं चूकते। यही वह समय भी था जब कूटनीतिक गलियारे में करीब तय सा लग रहा था कि देश के अगले विदेश सचिव विजय केशव गोखले होंगे। दरअसल, तब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनौपचारिक मीटिंग जैसी योजना पर काम रहे थे। इसमें उनके साथ सूत्रधार विदेश सचिव एस जयशंकर और विजय गोखले थे। बाद में यही हुआ।
चीन के साथ दूसरा मौका आया। अप्रैल-मई 2020 में लद्दाख में चीन की फौज ने वास्तविक नियंत्रण रेखा को बदलने का प्रयास किया और मई से लेकर जून तक तीन बार हिंसक झड़प भी हो गई। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में 5 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अपने चीन के समकक्ष को एक बार फिर मनाने में कामयाब हो गए। गलवां घाटी में दोनों देशों की सेनाएं पीछे हटीं, बफर जोन पर सहमत हुए और रिश्ते सामान्य होते दिखाई दिए।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के साढ़े छह साल
अजीत डोभाल 30 मई 2014 को जारी आदेश के बाद देश के पांचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने। भारत ने 1998 में पाकिस्तान की तर्ज पर यह पद शुरू किया था और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बृजेश मिश्र को पहला एनएसए बनाया था। 2004 में सत्ता बदलने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदेश सेवा के अधिकारी जेएन दीक्षित को एनएसए नियुक्त किया। दीक्षित के आकस्मिक निधन के बाद एमके नारायणन एनएसए बने। नाराणन भी खुफिया ब्यूरो के निदेशक और अजीत डोभाल के बॉस रह चुके थे। नारायणन के बाद विदेश सेवा से रिटायर होने के बाद शिवशंकर मेनन एनएसए बने। डोभाल से पहले के सभी एनएसए ने ज्यादा ध्यान बाह्य सुरक्षा, कूटनीति, रणनीतिक तैयारी की तरफ दिया। अजीत डोभाल ने पद संभालते ही आंतरिक सुरक्षा को इसमें काफी प्रमुखता से शामिल कर लिया।
डोभाल एनएसए बने ही थे कि इराक के तिकरित में भारत की 46 नर्स वहां बंधक बना ली गईं। बेहद गोपनीय रखकर 25 जून 2014 को एनएसए ने इराक की यात्रा की, रोडमैप तैयार किया और जुलाई 2014 में नर्सो की रिहाई तय हो पाई। एनएसए बनने के बाद डोभाल ने खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों, अर्धसैनिक बलों और पुलिस को जिम्मेदार बनाने की शुरुआत कराई। मैक (मल्टी एजेंसी सेंटर), एनसीटीसी जैसे प्रयासों पर ध्यान दिया। देश के इंटेलीजेंस सेक्शन पर विशेष ध्यान दिया। जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली की दिशा में कई प्रयोग किए और म्यामांर की सीमा से आने वाले संकट के लिए तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सुहाग के साथ काम किया। सेनाध्यक्ष के पद पर जनरल विपिन रावत की तैनाती, सीडीएस के तौर पर रावत की तैनाती और जनरल रावत समेत सभी जनरलों से एनएसए के तालमेल को बढ़ाने में अहम किरदार निभाया। अजीत डोभाल कभी पुलिस अफसर के रोल में नजर आए तो कभी खुफिया अधिकारी की तरह बेहद सतर्क और कभी कूटनीति, रणनीतिक तैयारी की भूमिका को प्रमुखता से निभाया।
क्यों कहे जाते हैं दरोगा और एनएसए पाकिस्तान?
अजीत डोभाल की आलोचना करने वालों की कमी नहीं है। खुफिया ब्यूरो के निदेशक रहे डोभाल केरल कैडर के 1968 बैच के अधिकारी रहे हैं। केरल के कोट्टायम में एएसपी के तौर पर पहली पोस्टिंग के उनके अनुभव भी शानदार रहे हैं। खुफिया ब्यूरो में आपरेशन विंग का काफी समय तक प्रमुख रहने, अंडर कवर आपरेशन में महारत होने के कारण उनकी आलोचना करने वाले तंज कसते हुए उन्हें दरोगा की संज्ञा देते हैं। इसी तरह से विदेश सेवा के कुछ अधिकारियों का आज भी मानना है कि कूटनीतिक और रणनीतिक मामलों में डोभाल की समझ कमजोर है। उनका पूरा ध्यान पाकिस्तान के इर्द-गिर्द प्रमुखता से रहता है और कुछ भी ठीक नहीं होता। इसलिए लोग यहां तंज कसते हुए उन्हें एनएसए पाकिस्तान भी कहते हैं। कहा यह भी जाता है कि इसलिए वह विदेश मंत्री एस जयशंकर, पूर्व विदेश सचिव विजय केशव गोखले समेत तमाम लोगों की सहायता लेते रहते हैं।
...लेकिन क्यों घबराता है पाकिस्तान, सतर्क रहता है चीन
2015 में पाकिस्तान ने डोभाल की प्रोफाइल को देखते हुए नासिर खान जांजुआ को अपने यहां एनएसए की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन डोभाल के कौशल के आगे जांजुआ प्रभावी नहीं हो पाए। आपरेशन डोभाल को समझने वालों का कहना है कि भारतीय एनएसए व्यवहार कुशलता, नीति और व्यवस्था में पूरा भरोसा करते हैं, लेकिन सामने वाले को बार-बार इस भरोसे को तोड़ने का अवसर नहीं देते। इसके लिए वह बड़ा होमवर्क करते हैं और हमेशा सावधान रहते हैं। विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के उनके एक पुराने सहयोगी का कहना है कि वह परंपरा को मानते हैं लेकिन सुधार के लिए इसमें बेझिझक बदलाव में यकीन करते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि उनमें हर मुद्दे पर होमवर्क के बाद अपना दृष्टिकोण होता है और गंभीरता से विचार करके वह उसे लागू करने के पक्ष में भी रहते हैं। एक अन्य इतिहासकार मित्र का भी मानना है कि जैसे के साथ तैसा व्यवहार की नीति मानने में डोभाल को कोई गुरेज नहीं होता। बताते हैं उनके इस कौशल के आगे पाकिस्तान बार-बार पस्त हो जा रहा है।
सामने वाले को नाजायज लाभ लेने का अवसर नहीं देते
15 सितंबर को भारत, पाकिस्तान, रूस समेत देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक प्रस्तावित थी। यह बैठक संघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के बैनर तले हो रही थी। इसमें पाकिस्तान के समकक्ष ने बैक ग्राउंड में भारत के हिस्से को पाकिस्तान का बताने वाला झंडा लगा रखा था। पाकिस्तान के समकक्ष की इस हरकत को देखते ही डोभाल को समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने बिना रूस, चीन और मित्र देशों की परवाह किए नाराजगी दिखाते हुए इस बैठक से खुद को अलग कर लिया। वह बैठक छोड़कर उठ गए। विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि इसका अच्छा असर पड़ा। इसी तरह से पाकिस्तान के एनएसए हों या चीन के, आरंभ में डोभाल ने अच्छा तालमेल दिखाया, लेकिन जब परिणाम में पेचीदगियां दिखाई दीं तो रिश्ते को व्यावहारिक बनाते चले गए।
ऑपरेशन जम्मू-कश्मीर देखिए
जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई पिछले छह साल से उच्च स्तर पर अस्थिरता फैलाने की कोशिश में लगी है, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रही है। अजीत डोभाल राज्य के अलगाववादी नेताओं को नहीं सुहाते। जम्मू-कश्मीर के अधिकांश राजनीतिक दलों के नेता अंदरखाने डोभाल को पसंद नहीं करते, लेकिन वह केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ मिलकर राज्य में शांति स्थापना पर काम कर रहे हैं। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती सरकार से भाजपा की समर्थन वापसी उन्ही की सलाह पर हुई है। इस समय अजीत डोभाल की योजना जम्मू-कश्मीर में स्थानीय निकायों के साथ-साथ विधानसभा का भयरहित और निष्पक्ष चुनाव कराने की है। ताकि राज्य में न केवल विकास को बढ़ावा मिले बल्कि जनता के विश्वास को भी जीता जा सके। समझा जाता है कि वह लगातार इसके बाबत सक्रिय हैं।
सार
भारत की डॉक्टरीन बदलकर देश ही नहीं दुनिया को चौंकाया
नेहरूवाद को मोदीवाद में बदलने के सूत्रधार
अब तक के सबसे प्रभावशाली राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
विस्तार
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भारत के पास एक दरोगा ऐसा है, जिससे पाकिस्तान घबराता है तो चीन के रणनीतिकार भी सावधान रहते हैं। चाहे देश की आंतरिक सुरक्षा का संकट हो या बाहरी, इस दरोगा को अंतिम इलाज के रूप में देखा जाता है। कोई और नहीं देश के पांचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की बात हो रही है। अजीत डोभाल देश की वह शख्सियत बन चुके हैं, जिन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय से रक्षात्मक दृष्टिकोण की परंपरा को रक्षात्मक आक्रामक नीति में बदलकर मोदीवाद के सूत्रधार का दर्जा पा लिया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के बाबत डॉक्टरीन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अजीत डोभाल ने कामकाज में काफी इजाफा कर लिया है। वह देश के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं जो आंतरिक से लेकर सुरक्षा के हर मामले में सक्रिय हैं। चाहे पूर्वी दिल्ली में दंगे के बाद लोगों के बीच में जाकर विश्वास बहाली का प्रयास हो या जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने, राज्य की वैधानिक स्थिति में बदलाव के बाद लोगों का विश्वास जीतने का प्रयास। इराक के तिकरित में आईएसआईएस के चंगुल में फंसी 46 भारतीय नर्सों का मामला हो या म्यांमार की सीमा में घुसकर सैन्य ऑपरेशन। 2016 में नियंत्रण रेखा पार करके पाक अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक रही हो या फिर 2019 में ऑपरेशन बालाकोट। अजीत डोभाल सभी में सक्रिय रहे हैं।
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पाकिस्तान के खिलाफ बदली डॉक्टरीन
भारत की नीति थी कि पहले हमला नहीं करेंगे। पड़ोसी देशों की संप्रभुता का सम्मान करेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसी नीति पर चलते हुए कारगलि संघर्ष के दौरान सेना को नियंत्रण रेखा पार करने की इजाजत नहीं दी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 26 नवंबर 2008 को मुंबई में घातक आतंकी हमले के बाद भी कदम भींचकर रह गए थे। लेकिन उरी में सैन्य शिविर पर आतंकी हमले के बाद भारत ने 2016 में रक्षात्मक बने रहने का चोला उतारकर फेंक दिया। भारतीय सैन्य बलों के पैरा कमांडो ने बेहद सूझ-बूझ के साथ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे जटिल आपरेशन को अंजाम दिया। ऐसा आपरेशन जिस पर देश के भीतर और बाहर भी लोगों को काफी समय तक विश्वास कर पाने में समय लगा। दूसरी बार फरवरी 2019 में पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमले के बाद वायुसेना के आपरेशन बालाकोट ने बचीखुची कसर पूरी कर दी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इसके सूत्रधारों में थे और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सार्वजनिक मंच से यह कहने में संकोच नहीं हुआ कि भारत घुसकर मारना भी जानता है।
चीन के साथ आउट ऑफ टर्न प्रयास
2017 में भारत और चीन के सैनिकों के बीच में डोकलाम में तनातनी हुई। यह गतिरोध पूरे 70 दिनों तक रहा। तब विदेश सचिव एस जयशंकर थे। चीन में भारत के राजदूत विजय केशव गोखले थे। एनएसए अजीत डोभाल ने चीन के पास एक संदेश भिजवाने की योजना पर काम किया कि डोकलाम के अलावा दोनों देशों की और भी दुनिया है। दोनों के अपने-अपने बड़े हित हैं। इसी के साथ भारत ने चीन के साथ एसे तनावपूर्ण हाल में ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन से खुद का पैर खीचने का संदेश दिया।
विदेश मंत्रालय के कूटनीति के जानकार, वर्तमान में विदेश मंत्री एस.जयशंकर और तत्कालीन चीन के राजदूत और बाद में विदेश सचिव विजय केशव गोखले इसके लिए अजीत डोभाल की तारीफ करने से नहीं चूकते। यही वह समय भी था जब कूटनीतिक गलियारे में करीब तय सा लग रहा था कि देश के अगले विदेश सचिव विजय केशव गोखले होंगे। दरअसल, तब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनौपचारिक मीटिंग जैसी योजना पर काम रहे थे। इसमें उनके साथ सूत्रधार विदेश सचिव एस जयशंकर और विजय गोखले थे। बाद में यही हुआ।
चीन के साथ दूसरा मौका आया। अप्रैल-मई 2020 में लद्दाख में चीन की फौज ने वास्तविक नियंत्रण रेखा को बदलने का प्रयास किया और मई से लेकर जून तक तीन बार हिंसक झड़प भी हो गई। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में 5 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अपने चीन के समकक्ष को एक बार फिर मनाने में कामयाब हो गए। गलवां घाटी में दोनों देशों की सेनाएं पीछे हटीं, बफर जोन पर सहमत हुए और रिश्ते सामान्य होते दिखाई दिए।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के साढ़े छह साल
अजीत डोभाल 30 मई 2014 को जारी आदेश के बाद देश के पांचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने। भारत ने 1998 में पाकिस्तान की तर्ज पर यह पद शुरू किया था और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बृजेश मिश्र को पहला एनएसए बनाया था। 2004 में सत्ता बदलने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदेश सेवा के अधिकारी जेएन दीक्षित को एनएसए नियुक्त किया। दीक्षित के आकस्मिक निधन के बाद एमके नारायणन एनएसए बने। नाराणन भी खुफिया ब्यूरो के निदेशक और अजीत डोभाल के बॉस रह चुके थे। नारायणन के बाद विदेश सेवा से रिटायर होने के बाद शिवशंकर मेनन एनएसए बने। डोभाल से पहले के सभी एनएसए ने ज्यादा ध्यान बाह्य सुरक्षा, कूटनीति, रणनीतिक तैयारी की तरफ दिया। अजीत डोभाल ने पद संभालते ही आंतरिक सुरक्षा को इसमें काफी प्रमुखता से शामिल कर लिया।
डोभाल एनएसए बने ही थे कि इराक के तिकरित में भारत की 46 नर्स वहां बंधक बना ली गईं। बेहद गोपनीय रखकर 25 जून 2014 को एनएसए ने इराक की यात्रा की, रोडमैप तैयार किया और जुलाई 2014 में नर्सो की रिहाई तय हो पाई। एनएसए बनने के बाद डोभाल ने खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों, अर्धसैनिक बलों और पुलिस को जिम्मेदार बनाने की शुरुआत कराई। मैक (मल्टी एजेंसी सेंटर), एनसीटीसी जैसे प्रयासों पर ध्यान दिया। देश के इंटेलीजेंस सेक्शन पर विशेष ध्यान दिया। जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली की दिशा में कई प्रयोग किए और म्यामांर की सीमा से आने वाले संकट के लिए तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सुहाग के साथ काम किया। सेनाध्यक्ष के पद पर जनरल विपिन रावत की तैनाती, सीडीएस के तौर पर रावत की तैनाती और जनरल रावत समेत सभी जनरलों से एनएसए के तालमेल को बढ़ाने में अहम किरदार निभाया। अजीत डोभाल कभी पुलिस अफसर के रोल में नजर आए तो कभी खुफिया अधिकारी की तरह बेहद सतर्क और कभी कूटनीति, रणनीतिक तैयारी की भूमिका को प्रमुखता से निभाया।
क्यों कहे जाते हैं दरोगा और एनएसए पाकिस्तान?
अजीत डोभाल की आलोचना करने वालों की कमी नहीं है। खुफिया ब्यूरो के निदेशक रहे डोभाल केरल कैडर के 1968 बैच के अधिकारी रहे हैं। केरल के कोट्टायम में एएसपी के तौर पर पहली पोस्टिंग के उनके अनुभव भी शानदार रहे हैं। खुफिया ब्यूरो में आपरेशन विंग का काफी समय तक प्रमुख रहने, अंडर कवर आपरेशन में महारत होने के कारण उनकी आलोचना करने वाले तंज कसते हुए उन्हें दरोगा की संज्ञा देते हैं। इसी तरह से विदेश सेवा के कुछ अधिकारियों का आज भी मानना है कि कूटनीतिक और रणनीतिक मामलों में डोभाल की समझ कमजोर है। उनका पूरा ध्यान पाकिस्तान के इर्द-गिर्द प्रमुखता से रहता है और कुछ भी ठीक नहीं होता। इसलिए लोग यहां तंज कसते हुए उन्हें एनएसए पाकिस्तान भी कहते हैं। कहा यह भी जाता है कि इसलिए वह विदेश मंत्री एस जयशंकर, पूर्व विदेश सचिव विजय केशव गोखले समेत तमाम लोगों की सहायता लेते रहते हैं।
...लेकिन क्यों घबराता है पाकिस्तान, सतर्क रहता है चीन
2015 में पाकिस्तान ने डोभाल की प्रोफाइल को देखते हुए नासिर खान जांजुआ को अपने यहां एनएसए की जिम्मेदारी सौंपी थी। लेकिन डोभाल के कौशल के आगे जांजुआ प्रभावी नहीं हो पाए। आपरेशन डोभाल को समझने वालों का कहना है कि भारतीय एनएसए व्यवहार कुशलता, नीति और व्यवस्था में पूरा भरोसा करते हैं, लेकिन सामने वाले को बार-बार इस भरोसे को तोड़ने का अवसर नहीं देते। इसके लिए वह बड़ा होमवर्क करते हैं और हमेशा सावधान रहते हैं। विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के उनके एक पुराने सहयोगी का कहना है कि वह परंपरा को मानते हैं लेकिन सुधार के लिए इसमें बेझिझक बदलाव में यकीन करते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि उनमें हर मुद्दे पर होमवर्क के बाद अपना दृष्टिकोण होता है और गंभीरता से विचार करके वह उसे लागू करने के पक्ष में भी रहते हैं। एक अन्य इतिहासकार मित्र का भी मानना है कि जैसे के साथ तैसा व्यवहार की नीति मानने में डोभाल को कोई गुरेज नहीं होता। बताते हैं उनके इस कौशल के आगे पाकिस्तान बार-बार पस्त हो जा रहा है।
सामने वाले को नाजायज लाभ लेने का अवसर नहीं देते
15 सितंबर को भारत, पाकिस्तान, रूस समेत देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक प्रस्तावित थी। यह बैठक संघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के बैनर तले हो रही थी। इसमें पाकिस्तान के समकक्ष ने बैक ग्राउंड में भारत के हिस्से को पाकिस्तान का बताने वाला झंडा लगा रखा था। पाकिस्तान के समकक्ष की इस हरकत को देखते ही डोभाल को समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने बिना रूस, चीन और मित्र देशों की परवाह किए नाराजगी दिखाते हुए इस बैठक से खुद को अलग कर लिया। वह बैठक छोड़कर उठ गए। विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि इसका अच्छा असर पड़ा। इसी तरह से पाकिस्तान के एनएसए हों या चीन के, आरंभ में डोभाल ने अच्छा तालमेल दिखाया, लेकिन जब परिणाम में पेचीदगियां दिखाई दीं तो रिश्ते को व्यावहारिक बनाते चले गए।
ऑपरेशन जम्मू-कश्मीर देखिए
जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई पिछले छह साल से उच्च स्तर पर अस्थिरता फैलाने की कोशिश में लगी है, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रही है। अजीत डोभाल राज्य के अलगाववादी नेताओं को नहीं सुहाते। जम्मू-कश्मीर के अधिकांश राजनीतिक दलों के नेता अंदरखाने डोभाल को पसंद नहीं करते, लेकिन वह केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ मिलकर राज्य में शांति स्थापना पर काम कर रहे हैं। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती सरकार से भाजपा की समर्थन वापसी उन्ही की सलाह पर हुई है। इस समय अजीत डोभाल की योजना जम्मू-कश्मीर में स्थानीय निकायों के साथ-साथ विधानसभा का भयरहित और निष्पक्ष चुनाव कराने की है। ताकि राज्य में न केवल विकास को बढ़ावा मिले बल्कि जनता के विश्वास को भी जीता जा सके। समझा जाता है कि वह लगातार इसके बाबत सक्रिय हैं।
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