नज़ीर अकबराबादी उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं। इनका जन्म आगरा में 1735 को हुआ था। समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में बदल गई। पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया। ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को लोग कविता मानने से इनकार करते रहे।
वे उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की सारी हदें कब की पार चुका था। बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चंद नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं। अकबराबादी का इंतक़ाल 1830 को हुआ।
पेश है नज़ीर का यह कलाम-
दिल यार की गली में कर आराम रह गया
पाया जहां फ़क़ीर ने बिसराम रह गया
किस-किस ने उस के इश्क़ में मारा न दम वले
सब चल बसे मगर वो दिल-आराम रह गया
जिस काम को जहां में तू आया था ऐ 'नज़ीर'
ख़ाना-ख़राब[1] तुझ से वही काम रह गया
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