सिनेमा साइंस है या आर्ट्स का एक विषय! इस पर लंबी बहस हो सकती है। हालांकि जाहिर यही है कि इसे बनाना कला का मामला है और इसे बनते हुए देखना साइंस का। कीमियागिरी यानी केमिस्ट्री के ज्ञान का सिनेमा की तकनीक में बहुत प्रयोग तब तक होता रहा जब तक तमाम सारे केमिकल्स का इस्तेमाल सिनेमा की रीलों को डेवलेप करने और निगेटिव से पॉजिटिव बनाने में होता रहा। कलकत्ता (अब कोलकाता) में 30 सितंबर 1922 को पैदा हुए ऋषिकेश मुखर्जी ने भी साइंस की ही पढ़ाई की। केमिस्ट्री से ग्रेजुएट हुए और कुछ साल तक बच्चों को गणित और साइंस पढ़ाया भी। लेकिन, उनका मन तो सिनेमा में लगा था। मास्टरी छोड़ एक दिन पहुंच गए बी एन सरकार के न्यू थिएटर्स और वहां कैमरा सीखने लगे। फिल्म एडीटिंग के शुरुआती गुर भी उन्होंने यहीं जिन उस्ताद से सीखे, उनका नाम केंची दा के नाम से बंगाली सिनेमा में मशहूर रहा है। केंची दा यानी कैंची चलाने वाले ये एडीटर थे, सुबोध मित्र। वहीं से ऋषिकेश मुखर्जी के मन में हिलोरें ले रहे सिनेमा के समंदर में ज्वार आया और वह आ गए मुंबई अपने नए गुरु बिमल रॉय की शरण में। ये सब बताने का मकसद यहां ये है कि ऋषिकेश मुखर्जी की जिस फिल्म ‘अच्छा बुरा’ की आज के बाइस्कोप में मैं बात करने वाला हूं, उसका बीज बोने से पहले किस्से की जुताई जरूरी है।
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