कद-काठी और फुर्ती में क्रोएशिया का कोई मुकाबला नहीं था। इसी बात को फ्रांस ने समझा और फिजूल की भिड़ंत से अपने को बचाया। नाक के नीचे से कैसे गेंद निकाल ले जाते हैं, यह कला क्रोएशिया से बेहतर कहीं देखने को नहीं मिली, लेकिन फ्रांस ने क्रोएशिया से यही सीखा और उसी के दावं से उसे ही मात दे दी।
वैसे, जानकारों की मानें तो यह मुकाबला इसी नतीजे पर पहुंचना था कि फ्रांस की टीम के पास खासा अनुभव है और अच्छी तैयारी थी। फिर भी क्रोएशिया का शुक्रिया कि उसके दमखम से यह फाइनल यादगार बन गया। मौसम विभाग ने आगाह किया था कि बारिश हो सकती है, लेकिन खेल कुछ ऐसी गति से चमत्कारिक ढंग से चल रहा था कि लगा, बादल भी मैच देखने लगे और बरसात भूल गए।
जब खुशी और गम के आंसुओं से लुजिन्हकी मैदान गीला होने लगा तो बादलों को भी याद आया और वे ऐसे फट पड़े कि राष्ट्रपति पुतिन का भी लिहाज नहीं किया। छतरी जरूर तनी थी उनके सिर पर, लेकिन उनके सूट से पानी टपक रहा था...बह रहा था। जमीन के इंतजाम तो आदमी कर लेता है, लेकिन आसमानी-सुलतानी के आगे उसका कोई वश नहीं चलता... फिर राष्ट्रपति ही क्यों ना हो।
पहली बार... जी हां, पहली बार। तीन विश्व कप देख चुका हूं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि चलते मैच में दीवाने मैदान में उतर आएं और खेल बंद कर देना पड़े। राष्ट्रपति पुतिन की मौजूदगी में ऐसा हुआ। क्रिकेट में तो ऐसा आमतौर पर होता रहता है, लेकिन विश्व कप फुटबॉल में...और वह भी फाइनल में ऐसा विघ्न कभी नहीं आया। शायद मुगालते की वजह से कहीं ढील बह गई और तीन दीवानों ने खेल बिगाड़ दिया। पता नहीं, अब उनके साथ क्या सलूक होता है, लेकिन आखिरी दिन रूस के इंतजाम पर बट्टा तो लग ही गया। वैसे, पता चला कि यह दीवाने नहीं रूसी विरोधी थे और इनकी जिम्मेदारी एक ग्रुप ने ली भी।
क्रोएशिया की जर्सी के आगे की तरफ जो चौखाने नजर आते हैं ना, उन्हें देखते हुए शतरंज की याद आती है। शतरंज की यही खासियत और खसलत है कि हर बार नई चाल की दरकार होती है। क्रोएशिया का खेल देखें तो शतरंज की ही तरह चलता है, चाल पर चाल। और टीमों के लिए यह खेल नया था, इसलिए समझने में देरी की, लेकिन फ्रांस के शातिर कोच ने इस शतरंजी चाल का तोड़ निकाल लिया और इसी वजह से फ्रांस को यह आखिरी जीत मिल गई।
क्रोएशिया को उसकी ही तरह खेल कर हराया नहीं जा सकता, रोका जा सकता है और यही हमने उन छह मैचों में देखा कि क्रोएशिया को सीधी-सीधी जीत सिर्फ दो मैच में मिली, दो बराबरी पर छूटे और बाकी दो के लिए अतिरिक्त समय लिया या पेनल्टी शूट आउट, जबकि फ्रांस ने सीधे-सीधे चार मैच जीत लिए थे यानी पलड़ा तो फ्रांस का ही भारी था।
कहते हैं ना आखिरी समय के लिए कुछ खास बचा कर रखना चाहिए, तो फ्रांस और क्रोएशिया ने अपनी सारी जमा-पूंजी इस आखिरी मुकाबले पर दावं लगा दी। ऐसा लग रहा था मैदान में खिलाड़ी नहीं दौड़ रहे हैं, बिजली चमक रही है। शायद इसीलिए खेल समाप्ति पर बादल झूम कर ऐसे बरसे कि तरबतर हो गया, दिन भर की गरमी, जैसे हवा हो गई।
यह हमारा क्रोएशिया के लिए अतिरिक्त प्रेम ही था कि उसकी जीत की कामना कर रहे थे, वरना फ्रांस तो पहले से ही जिता-जिताया था। तारीफ तो क्रोएशिया के खिलाड़ियों की होना चाहिए कि फ्रांस को चैन से नहीं जीतने दिया। फ्रांस ने भी बेल्जियम के खिलाफ जैसा ढोंग दिखाया था, इस फायनल मुकाबले में नहीं दोहराया।
कह सकते हैं कि इसी मुकाबले के लिए महीने भर का यज्ञ हो रहा था। करीब आधी सदी बाद ऐसा हुआ है कि फाइनल के पहले हॉफ में ही तीन गोल हो गए। फ्रांस के लिए यह बढ़िया रहा कि उसके सभी स्टार खिलाड़ी चल निकले। क्रोएशिया ने फ्रांस के खेल को देख कर अपने में कोई खास बदलाव नहीं किया, जबकि फ्रांस ने वक्त के हिसाब से अपने को बदला और गोल पर गोल कर दिए।