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जैसे कुछ महिलाओं की आदत होती है ना... कि मेहमान के जाते ही सबसे पहले ड्राइंग रूम ठीक करती हैं, वैसा ही कुछ मास्को में यहां के स्टेशनों को देख कर लगा। जिस स्टेशन से मैं हर रोज कहीं आता-जाता रहा हूं, वहां जब पहुंचा तो स्टेशन का रातोंरात हुलिया ही बदल गया था। ना तो लुजिन्हकी और स्पार्टक स्टेडियम जाने के निशान वहां थे और ना ही रूसी-इंग्लिश के साइन बोर्ड।
वॉलंटियर तो छोड़िये, पुलिस का एक सिपाही भी किसी स्टेशन पर नजर नहीं आया। और... वो शोर मचाती, हंगामा करती फुटबॉल दीवानों की टोलियां भी गायब थीं। स्टेशन पर भीड़ तभी नजर आ रही थी, जब कोई मेट्रो ट्रेन उगलती, लेकिन तभी दूसरी ट्रेन आकर उनमें से कई को समेट ले जाती और बाकी सीढ़ियां चढ़ते हुए बाहर निकल जाते।
एक नहीं, सभी स्टेशनों से रातोंरात 'विश्व कप फुटबॉल' के सारे निशां गायब कर दिए गए थे। इसकी वजह यह है कि मास्को वालों को अपनी मेट्रो-ट्रेन पर बड़ा नाज है। यदि आंख पर पट्टी बांध कर किसी अजनबी को स्टेशन पर खड़ा कर दें तो वह यह तो नहीं बता पाएगा कि यह स्टेशन है। हमारे यहां के सितारा होटलों के कॉरिडोर भी ऐसे नहीं होंगे, किसी थियेटर में ऐसा जलवा नजर नहीं आएगा।
दुनिया की सबसे ऊंडी (गहरी) मेट्रो-लाइन है यहां। पांच-पांच सौ सीढ़ियों के एस्केलेटर हैं और सफाई का यह आलम कि इन चलती सीढ़ियों की हर दो घंटे में गीले कपड़े से सफाई होती है, पोंछा लगाया जाता है। स्टेशन से सभी दिशा-निर्देश और मेट्रो-नक्शे उखाड़ लिए हैं, मगर मजाल कि एक अंश भी तो वहां नजर आ जाए।
शायद दुनिया में मास्को ही ऐसा है, जहां के रेलवे स्टेशन का टूर होता है। साथ में गाइड रहता है, जो खास-खास स्टेशन की जानकारी देता है। यह टूर करीब बारह सौ रूबल में कराया जाता है। कुछ स्टेशनों पर तो ऐसे झाड़-फानूस लगे हैं कि राजे-रजवाड़ों के यहां भी शायद नजर आए होंगे। हर स्टेशन की अपनी एक और अदा है। हर एक का रंग-रोगन और सजावट अलग है। स्टेशनों से इतना प्यार करने वाला देश शायद ही दुनिया में कहीं और होगा... हो तो बता दें!
जैसे कुछ महिलाओं की आदत होती है ना... कि मेहमान के जाते ही सबसे पहले ड्राइंग रूम ठीक करती हैं, वैसा ही कुछ मास्को में यहां के स्टेशनों को देख कर लगा। जिस स्टेशन से मैं हर रोज कहीं आता-जाता रहा हूं, वहां जब पहुंचा तो स्टेशन का रातोंरात हुलिया ही बदल गया था। ना तो लुजिन्हकी और स्पार्टक स्टेडियम जाने के निशान वहां थे और ना ही रूसी-इंग्लिश के साइन बोर्ड।
वॉलंटियर तो छोड़िये, पुलिस का एक सिपाही भी किसी स्टेशन पर नजर नहीं आया। और... वो शोर मचाती, हंगामा करती फुटबॉल दीवानों की टोलियां भी गायब थीं। स्टेशन पर भीड़ तभी नजर आ रही थी, जब कोई मेट्रो ट्रेन उगलती, लेकिन तभी दूसरी ट्रेन आकर उनमें से कई को समेट ले जाती और बाकी सीढ़ियां चढ़ते हुए बाहर निकल जाते।
एक नहीं, सभी स्टेशनों से रातोंरात 'विश्व कप फुटबॉल' के सारे निशां गायब कर दिए गए थे। इसकी वजह यह है कि मास्को वालों को अपनी मेट्रो-ट्रेन पर बड़ा नाज है। यदि आंख पर पट्टी बांध कर किसी अजनबी को स्टेशन पर खड़ा कर दें तो वह यह तो नहीं बता पाएगा कि यह स्टेशन है। हमारे यहां के सितारा होटलों के कॉरिडोर भी ऐसे नहीं होंगे, किसी थियेटर में ऐसा जलवा नजर नहीं आएगा।
दुनिया की सबसे ऊंडी (गहरी) मेट्रो-लाइन है यहां। पांच-पांच सौ सीढ़ियों के एस्केलेटर हैं और सफाई का यह आलम कि इन चलती सीढ़ियों की हर दो घंटे में गीले कपड़े से सफाई होती है, पोंछा लगाया जाता है। स्टेशन से सभी दिशा-निर्देश और मेट्रो-नक्शे उखाड़ लिए हैं, मगर मजाल कि एक अंश भी तो वहां नजर आ जाए।
शायद दुनिया में मास्को ही ऐसा है, जहां के रेलवे स्टेशन का टूर होता है। साथ में गाइड रहता है, जो खास-खास स्टेशन की जानकारी देता है। यह टूर करीब बारह सौ रूबल में कराया जाता है। कुछ स्टेशनों पर तो ऐसे झाड़-फानूस लगे हैं कि राजे-रजवाड़ों के यहां भी शायद नजर आए होंगे। हर स्टेशन की अपनी एक और अदा है। हर एक का रंग-रोगन और सजावट अलग है। स्टेशनों से इतना प्यार करने वाला देश शायद ही दुनिया में कहीं और होगा... हो तो बता दें!