पढ़ें अमर उजाला ई-पेपर
कहीं भी, कभी भी।
*Yearly subscription for just ₹299 Limited Period Offer. HURRY UP!
19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। साल 1969 के बाद 1980 में पुनः छह बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। शुक्रवार को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। बैंकों को गरीबों तक पहुंचाने के लिए इनका राष्ट्रीयकरण किया गया था, हालांकि इस फैसले को लेने के लिए भी कई सालों का इंतजार लोगों को करना पड़ेगा।
दूसरे विश्व युद्ध से शुरू हुई कोशिश
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया। उधर बैंक ऑफ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ तो इधर, भारतीय रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी थी फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया।
इस वजह से शुरू हुई थी कवायद
आर्थिक तौर पर सरकार को लग रहा था कि कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे। बताते हैं कि इस समय देश के 14 बड़े बैंकों के पास देश की लगभग 80 फीसदी पूंजी थी। इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज़्यादा अवसर थे। वहीं सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी।
1955 तक डूब गए थे 360 बैंक
एक रिपोर्ट के मुताबिक 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपया भी फंस गया था। वहीं कुछ बैंक काला बाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया, ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके।
सत्ता संभालने के दो साल बाद किया राष्ट्रीयकरण
1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं थी। उनका झुकाव तत्कालीन सोवियत रूस की तरफ था। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में बैंक सरकार के अधीन रहते थे। सात जुलाई, 1969 एआईसीसी बंगलौर अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने तुरंत प्रभाव से बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रख दिया। लोगों में संदेश गया कि श्रीमती इंदिरा गांधी गरीबों के हक की लडाई लड़ने वाला योद्धा हैं। पर अभी एक अड़चन और थी।
मोरारजी देसाई का था विरोध
तेज तर्रार राष्ट्रवादी और तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई इसमें आड़े आ रहे थे। इंदिरा गांधी इनसे खौफ खाती थीं। हालांकि इंदिरा के दस सूत्रीय कार्यक्रम को पार्टी में पेश करने वाले मोरारजी देसाई ही थे जो सामाजिक नजरिये से बैंकों पर सरकारी नियंत्रण के पक्षधर थे। पर वे उनके राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे। 16 जुलाई, 1969 को इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया।
विधेयक के जरिए किया पास
19 जुलाई को ही देर रात एक आर्डिनेंस जारी करके सरकार ने देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। जिस आर्डिनेंस के ज़रिये ऐसा किया गया वह ‘बैंकिंग कम्पनीज आर्डिनेंस’ कहलाया। बाद में इसी नाम से विधेयक भी पारित हुआ और कानून बन गया। यह गांधी की पहली जीत थी।
यह सात लोग थे कवायद में शामिल
बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने में सात लोग शामिल थे। इनमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राष्ट्रपति वीवी गीरि, आरबीआई गवर्नर एल के झा, आर्थिक मामलों के सचिव आईजी पटेल, पीएम के मुख्य सचिव पीएन हासकर, आरबीआई के डिप्टी गवर्नर ए बख्शी और वित्त मंत्रालय में उप सचिव डी एन घोष।
बैंक शाखाओं में हुई बढ़ोतरी
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला जिसमें छह और निजी बैंकों को सरकारी किया गया। 1994 के आते आते यह आंकड़ा साठ हजार को पार कर गया।
बैंकों के पास आया पैसा
इसका यह फायदा हुआ कि बैंकों के पास काफी मात्रा में पैसा इकट्टा हुआ और आगे बतौर कर्ज बांटा गया। प्राथमिक सेक्टर जिसमें छोटे उद्योग, कृषि और छोटे ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर्स शामिल थे, उनको फायदा हुआ।
बैंकों का ऐसे बढ़ता गया एनपीए
सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों को दिशा-निर्देश देकर उनके लोन पोर्टफोलियो में 40 फीसदी कृषि लोन की हिस्सेदारी की बात की। बैंकों ने अपना टारगेट और व्यक्तिगत लाभ के चलते आंख बंद करके पैसा दिया, जिससे बैंको का एनपीए बढ़ गया। 2019 में सरकारी बैंकों का एनपीए 10 फीसदी से ऊपर है।
यदि कुल मिलाकर देखा जाये तो यह बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के आज बैंकों की यह दुर्दशा हो गई हे कि ऑपरेटिव प्रॉफिट कमाने के बाद भी बैंक घाटे में चल रहे हैं।
50 वर्षों का ऐसे रहा सफर
इन वर्षों में राष्ट्रीयकृत बैंको ने कई दौर देखे हैं।
- लोन मेला
- बही खातों से कम्पूटरीकृरण
- बैंकों की स्वायतता
- बैंकों का शेयर बाजार में लिस्टेड होना
- बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाएं
- जनधन खातें
- नोटबंदी
बैंकों का विलय
स्टेट बैंक में सात एसोसिएट बैंकों और बैंक ऑफ बड़ौदा में विजया बैंक, देना बैंक का विलय हो चुका है और बाकी बचे छोटे बैंकों को भी बड़े बैंकों में विलय करने की तैयारी चल रही है। इन 14 बैंकों का 1969 में कुल मुनाफा 5.7 करोड़ रुपये था, जो 50 साल बाद बढ़कर 49,700 करोड़ रुपये हो गया है।
19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। साल 1969 के बाद 1980 में पुनः छह बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। शुक्रवार को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। बैंकों को गरीबों तक पहुंचाने के लिए इनका राष्ट्रीयकरण किया गया था, हालांकि इस फैसले को लेने के लिए भी कई सालों का इंतजार लोगों को करना पड़ेगा।
दूसरे विश्व युद्ध से शुरू हुई कोशिश
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया। उधर बैंक ऑफ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ तो इधर, भारतीय रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी थी फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया।
इस वजह से शुरू हुई थी कवायद
आर्थिक तौर पर सरकार को लग रहा था कि कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे। बताते हैं कि इस समय देश के 14 बड़े बैंकों के पास देश की लगभग 80 फीसदी पूंजी थी। इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज़्यादा अवसर थे। वहीं सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी।
1955 तक डूब गए थे 360 बैंक
एक रिपोर्ट के मुताबिक 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपया भी फंस गया था। वहीं कुछ बैंक काला बाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया, ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके।
सत्ता संभालने के दो साल बाद किया राष्ट्रीयकरण
1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं थी। उनका झुकाव तत्कालीन सोवियत रूस की तरफ था। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में बैंक सरकार के अधीन रहते थे। सात जुलाई, 1969 एआईसीसी बंगलौर अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने तुरंत प्रभाव से बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रख दिया। लोगों में संदेश गया कि श्रीमती इंदिरा गांधी गरीबों के हक की लडाई लड़ने वाला योद्धा हैं। पर अभी एक अड़चन और थी।
मोरारजी देसाई का था विरोध
तेज तर्रार राष्ट्रवादी और तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई इसमें आड़े आ रहे थे। इंदिरा गांधी इनसे खौफ खाती थीं। हालांकि इंदिरा के दस सूत्रीय कार्यक्रम को पार्टी में पेश करने वाले मोरारजी देसाई ही थे जो सामाजिक नजरिये से बैंकों पर सरकारी नियंत्रण के पक्षधर थे। पर वे उनके राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे। 16 जुलाई, 1969 को इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया।
विधेयक के जरिए किया पास
19 जुलाई को ही देर रात एक आर्डिनेंस जारी करके सरकार ने देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। जिस आर्डिनेंस के ज़रिये ऐसा किया गया वह ‘बैंकिंग कम्पनीज आर्डिनेंस’ कहलाया। बाद में इसी नाम से विधेयक भी पारित हुआ और कानून बन गया। यह गांधी की पहली जीत थी।
यह सात लोग थे कवायद में शामिल
बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने में सात लोग शामिल थे। इनमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राष्ट्रपति वीवी गीरि, आरबीआई गवर्नर एल के झा, आर्थिक मामलों के सचिव आईजी पटेल, पीएम के मुख्य सचिव पीएन हासकर, आरबीआई के डिप्टी गवर्नर ए बख्शी और वित्त मंत्रालय में उप सचिव डी एन घोष।
बैंक शाखाओं में हुई बढ़ोतरी
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला जिसमें छह और निजी बैंकों को सरकारी किया गया। 1994 के आते आते यह आंकड़ा साठ हजार को पार कर गया।
बैंकों के पास आया पैसा
इसका यह फायदा हुआ कि बैंकों के पास काफी मात्रा में पैसा इकट्टा हुआ और आगे बतौर कर्ज बांटा गया। प्राथमिक सेक्टर जिसमें छोटे उद्योग, कृषि और छोटे ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर्स शामिल थे, उनको फायदा हुआ।
बैंकों का ऐसे बढ़ता गया एनपीए
सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों को दिशा-निर्देश देकर उनके लोन पोर्टफोलियो में 40 फीसदी कृषि लोन की हिस्सेदारी की बात की। बैंकों ने अपना टारगेट और व्यक्तिगत लाभ के चलते आंख बंद करके पैसा दिया, जिससे बैंको का एनपीए बढ़ गया। 2019 में सरकारी बैंकों का एनपीए 10 फीसदी से ऊपर है।
यदि कुल मिलाकर देखा जाये तो यह बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के आज बैंकों की यह दुर्दशा हो गई हे कि ऑपरेटिव प्रॉफिट कमाने के बाद भी बैंक घाटे में चल रहे हैं।
50 वर्षों का ऐसे रहा सफर
इन वर्षों में राष्ट्रीयकृत बैंको ने कई दौर देखे हैं।
- लोन मेला
- बही खातों से कम्पूटरीकृरण
- बैंकों की स्वायतता
- बैंकों का शेयर बाजार में लिस्टेड होना
- बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाएं
- जनधन खातें
- नोटबंदी
बैंकों का विलय
स्टेट बैंक में सात एसोसिएट बैंकों और बैंक ऑफ बड़ौदा में विजया बैंक, देना बैंक का विलय हो चुका है और बाकी बचे छोटे बैंकों को भी बड़े बैंकों में विलय करने की तैयारी चल रही है। इन 14 बैंकों का 1969 में कुल मुनाफा 5.7 करोड़ रुपये था, जो 50 साल बाद बढ़कर 49,700 करोड़ रुपये हो गया है।