पढ़ें अमर उजाला ई-पेपर
कहीं भी, कभी भी।
*Yearly subscription for just ₹299 Limited Period Offer. HURRY UP!
अगर इतिहास की सही विवेचना की जाए तो आप यही कहेंगे कि भगत सिंह का संबंध जितना वर्तमान पाकिस्तान की धऱती से रहा, उतना भारत से नहीं। हालांकि ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद बने दो मुल्कों में से भारत में जितना सम्मान भगत सिंह को मिला, उतना पाकिस्तान में नहीं। जबकि भगत सिंह का जन्म ही सिर्फ वर्तमान पाकिस्तान में ही नहीं हुआ, बल्कि उनकी पढ़ाई भी वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर के स्कूल में हुई। भगत सिंह शहीद भी लाहौर जेल के अंदर हुए। लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें वो सम्मान कभी नहीं दिया जो भगत सिंह को दिया जाना चाहिए था।
पाकिस्तान में कटटरपंथी जमात तो भगत सिंह के इस कदर खिलाफ है कि जब भगत सिंह के फांसी स्थल के नाम को भगत सिंह के नाम पर करने की बात आई तो कटटरपंथी जमातों ने इसका विरोध किया।
दरअसल, विरोध करने में वालों में मुख्य जमात-उल-दवा और लश्कर-ए-तैयब्बा का संरक्षक हाफिज सईद था। इसके बावजूद पाकिस्तान के अंदर भगत सिंह को उचित सम्मान देने को लेकर अब बहस हो रही है। पाकिस्तानी पाठयपुस्तकों में प़ढ़ाए जाने वाले इतिहास में भी भगत सिंह को उचित स्थान दिलवाने की लड़ाई चल रही है।
भगत सिंह की फांसी और लाहौर हाईकोर्ट में लड़ाई
भगत सिंह की फांसी अदालती कत्ल था। बेशक भारत में इस पर बहस नहीं हो रही है। लेकिन पाकिस्तान में इसपर बहस हो रही है। उन्हें फांसी देते हुए अदालती प्रक्रिया का घोर उल्लंघन ब्रिटिश सरकार ने किया था। अदालत ने भी कानून के पालन के बजाए भगत सिंह को फांसी देने में ज्यादा रुचि दिखाई।
अब दुबारा से इस मामले को खोलने की मांग की जा रही है। लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन जो भगत सिंह को पाकिस्तान में उचित सम्मान देने की लड़ाई लड़ रहा है, लाहौर स्थित पंजाब हाईकोर्ट में मामले को ले गया है। जॉन सैंडर्स हत्याकांड में भगत सिंह की दी गई फांसी के मामले को दुबारा खोलने की अर्जी लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह मेमोरियल फांउडेशन ने दे रखी है।
एफआईआर में भगत सिंह का नाम नहीं 300 गवाहों से पूछताछ तक नहीं हुई
फाउंडेशन के इम्तियाज कुरैशी का तर्क है कि एफआईआर में भगत सिंह को जिस मामले में फांसी दी गई उस मामले में दर्ज एफआईआर में भगत सिंह का नाम भी नहीं था। दिसंबर 1928 में अनारकली पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर में भगत सिंह का नाम नहीं है।
एफआईआर के मुताबिक पांच फीट पांच इंच लंबा, पतला, छोटी मूंछ वाला व्यक्ति जिसने सफेद पजामा और ग्रे कुर्ता डाल रखा था ने जॉन सैंडर्स पर गोली चलाई।
पहले अनारकली पुलिस स्टेशन ने एफआईआर देने से मना कर दिया और संबंधित अधिकारियों ने घूस की मांग की, लेकिन लाहौर हाईकोर्ट के आदेश के बाद एफआईआर की कॉपी कोर्ट में पहुंची। लेकिन भगत सिंह का फांसी का मामला यहीं दिलचस्प नहीं होता।
इस केस में बनाए गए कुल 300 गवाहों से कोई पूछताछ नहीं की गई। इम्तियाज कुरैशी का तर्क है कि भगत सिंह को फांसी देने की प्रक्रिया में भारी गलती है। इसी कारण उन्होंनें लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह की फांसी का मुकदमा को दुबारा खोलने की अर्जी दे रखी है।
फाउंडेशन ने ब्रिटिश गर्वनमेंट से भगत सिंह की गलत तरीके से फांसी दिए जाने को लेकर माफी मांगने की मांग भी की गई है। फाउंडेशन का तर्क है कि अगर ब्रिटिश प्रधानमंत्री जलियावाला बाग में हुए भीषण नरसंहार को लेकर माफी मांगी है तो भगत सिंह के साथ की गई नाइंसाफी को लेकर माफी मांगने में क्या हर्ज है।
लाहौर का सदमान चौक और भगत सिंह
भगत सिंह का लाहौर से खासा संबंध रहा। भगत सिंह की पढ़ाई लाहौर में हुई। हालांकि भगत सिंह का परिवार सिख (संधू जाट) था। लेकिन भगत सिंह के दादा ने भगत सिंह को लाहौर स्थित आर्य समाज से संबंधित स्कूल में पढ़ाई के लिए डाला, क्योंकि उस समय लाहौर के खालसा स्कूल में भगत सिंह को इसलिए नही डाला कि उस समय खालसा स्कूल ब्रिटिश सरकार के नजदीक थे।
भगत सिंह की फांसी भी लाहौर में हुई। भगत सिंह के फांसी स्थल को वर्तमान में सदमान चौक बोलते हैं। यह लाहौर में स्थित है। यह ब्रिटिश राज में लाहौर जेल का एक पार्ट था, जहां पर भगत सिंह को फांसी दी गई थी। फिलहाल सदमान चौक शहर का गुलजार इलाका है जिसके आसपास बसे रिहायशी इलाकों में पाकिस्तान के अमीर लोग रहते हैं।
सदमान चौक को ही भगत सिंह के नाम करने की मांग लगातार फाउंडेंशन ने की है। एक बार इस मामले में फाउंडेशन को सफलता मिल गई थी। लाहौर नगर प्रशासन ने सदमान चौक को भगत सिंह के नाम पर करने के आदेश जारी कर दिए थे। लेकिन इसके बाद एकाएक शहर में ही मजबूत हाफिज सईद ने धमकी दे दी। उसने भगत सिंह काफिर करार दिया। यहां पर हाफिज सईद की फिर से जीत हो गई। नगर प्रशासन पीछे हट गया। मामला फिर अभी कोर्ट में है।
हालांकि भगत सिंह क याद फैसलाबाद जिले के बंगा गांव से भी जुड़ी है जहां वो पैदा हुए। 23 मार्च को यहां ख़ास कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भगत सिंह के परिवार का बनाया हुआ घर आज भी यहां मौजूद है। भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह ने 120 साल पहले जो आम का पेड़ लगाया था, वो आज भी मौजूद है। उनके गांव का नाम बदल कर भगतपुरा रख दिया गया है।
पाकिस्तानी सेना और सरकार की भगत सिंह से दूरी
पाकिस्तानी सेना और सरकार भगत सिंह से आज भी दूरी बनाए है। पाकिस्तान के कट्टरपंथी जमात भगत सिंह के नाम से भड़क जाते हैं। कट्टरपंथियों की जमात भगत सिंह को ‘काफिर’ करार देती है, इसलिए ‘काफिर’ के नाम पर सदमान चौक का नाम बदला जाना हाफिज सईद को नापसंद है। जबकि पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान एक सोची समझी रणनीति के तहत भगत सिंह से दूरी बनाकर रखे हुए हैं।
हालांकि पाकिस्तानी पंजाब के मुस्लिम जाट भगत सिंह को काफी सम्मान से देखते हैं। उसका कारण जातीय भी है। भगत सिंह सिख जाट कम्युनिटी के संधू क्लैन से संबंधित थे। पाकिस्तानी पंजाब में मुस्लिम जाटों में संधू क्लैन मजबूत है। लेकिन पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और सेना की नजर में भगत सिंह कम्युनिस्ट और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे।
ये विचारधारा पाकिस्तानी सैन्य स्टैबलिशमेंट को भी कभी पसंद नहीं रही है। जनरल जियाउलहक से लेकर जुल्फिकार अली भुट्टो तक ने कम्युनिस्ट मूवमेंट को पाकिस्तान में बुरी तरह से रौंदा। किसी जमानें में कराची और लाहौर में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान, इससे जुड़े श्रम संगठन और छात्र यूनियन मजबूत थे।
अफगानिस्तान से लगते सीमांत इलाकों में भी कम्युनिस्ट युवाओं की जमात पैठ करने लगी थी। पाकिस्तान के युवा 1970 से 1990 तक रूस और पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट मुल्कों में पढ़ने भी जाते थे। वे भगत सिंह को भी पढ़ते थे। लेकिन 1970 के दशक में तथाकथित इस्लामी समाजवादी जुल्फिकार अली भुटटो ने सबसे पहले युवा कम्युनिस्टों, खासकर कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले युवाओं का जोरदार दमन किया।
जनरल जियाउलहक ने तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया था। इन घटनाओं से समझा जाता है कि आखिर पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट भगत सिंह से क्यों दूर बनाती है। क्योंकि भगत सिंह क विचारधारा पाकिस्तानी युवाओं को जेहादी के बजाए तार्किक बनाएगा।
अगर इतिहास की सही विवेचना की जाए तो आप यही कहेंगे कि भगत सिंह का संबंध जितना वर्तमान पाकिस्तान की धऱती से रहा, उतना भारत से नहीं। हालांकि ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद बने दो मुल्कों में से भारत में जितना सम्मान भगत सिंह को मिला, उतना पाकिस्तान में नहीं। जबकि भगत सिंह का जन्म ही सिर्फ वर्तमान पाकिस्तान में ही नहीं हुआ, बल्कि उनकी पढ़ाई भी वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर के स्कूल में हुई। भगत सिंह शहीद भी लाहौर जेल के अंदर हुए। लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें वो सम्मान कभी नहीं दिया जो भगत सिंह को दिया जाना चाहिए था।
पाकिस्तान में कटटरपंथी जमात तो भगत सिंह के इस कदर खिलाफ है कि जब भगत सिंह के फांसी स्थल के नाम को भगत सिंह के नाम पर करने की बात आई तो कटटरपंथी जमातों ने इसका विरोध किया।
दरअसल, विरोध करने में वालों में मुख्य जमात-उल-दवा और लश्कर-ए-तैयब्बा का संरक्षक हाफिज सईद था। इसके बावजूद पाकिस्तान के अंदर भगत सिंह को उचित सम्मान देने को लेकर अब बहस हो रही है। पाकिस्तानी पाठयपुस्तकों में प़ढ़ाए जाने वाले इतिहास में भी भगत सिंह को उचित स्थान दिलवाने की लड़ाई चल रही है।
भगत सिंह की फांसी और लाहौर हाईकोर्ट में लड़ाई
भगत सिंह की फांसी अदालती कत्ल था। बेशक भारत में इस पर बहस नहीं हो रही है। लेकिन पाकिस्तान में इसपर बहस हो रही है। उन्हें फांसी देते हुए अदालती प्रक्रिया का घोर उल्लंघन ब्रिटिश सरकार ने किया था। अदालत ने भी कानून के पालन के बजाए भगत सिंह को फांसी देने में ज्यादा रुचि दिखाई।
अब दुबारा से इस मामले को खोलने की मांग की जा रही है। लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन जो भगत सिंह को पाकिस्तान में उचित सम्मान देने की लड़ाई लड़ रहा है, लाहौर स्थित पंजाब हाईकोर्ट में मामले को ले गया है। जॉन सैंडर्स हत्याकांड में भगत सिंह की दी गई फांसी के मामले को दुबारा खोलने की अर्जी लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह मेमोरियल फांउडेशन ने दे रखी है।
भगत सिंह का लाहौर से खासा संबंध रहा। भगत सिंह की पढ़ाई लाहौर में हुई। हालांकि भगत सिंह का परिवार सिख (संधू जाट) था।
- फोटो : Amar Ujala
एफआईआर में भगत सिंह का नाम नहीं 300 गवाहों से पूछताछ तक नहीं हुई
फाउंडेशन के इम्तियाज कुरैशी का तर्क है कि एफआईआर में भगत सिंह को जिस मामले में फांसी दी गई उस मामले में दर्ज एफआईआर में भगत सिंह का नाम भी नहीं था। दिसंबर 1928 में अनारकली पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर में भगत सिंह का नाम नहीं है।
एफआईआर के मुताबिक पांच फीट पांच इंच लंबा, पतला, छोटी मूंछ वाला व्यक्ति जिसने सफेद पजामा और ग्रे कुर्ता डाल रखा था ने जॉन सैंडर्स पर गोली चलाई।
पहले अनारकली पुलिस स्टेशन ने एफआईआर देने से मना कर दिया और संबंधित अधिकारियों ने घूस की मांग की, लेकिन लाहौर हाईकोर्ट के आदेश के बाद एफआईआर की कॉपी कोर्ट में पहुंची। लेकिन भगत सिंह का फांसी का मामला यहीं दिलचस्प नहीं होता।
इस केस में बनाए गए कुल 300 गवाहों से कोई पूछताछ नहीं की गई। इम्तियाज कुरैशी का तर्क है कि भगत सिंह को फांसी देने की प्रक्रिया में भारी गलती है। इसी कारण उन्होंनें लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह की फांसी का मुकदमा को दुबारा खोलने की अर्जी दे रखी है।
फाउंडेशन ने ब्रिटिश गर्वनमेंट से भगत सिंह की गलत तरीके से फांसी दिए जाने को लेकर माफी मांगने की मांग भी की गई है। फाउंडेशन का तर्क है कि अगर ब्रिटिश प्रधानमंत्री जलियावाला बाग में हुए भीषण नरसंहार को लेकर माफी मांगी है तो भगत सिंह के साथ की गई नाइंसाफी को लेकर माफी मांगने में क्या हर्ज है।
लाहौर का सदमान चौक और भगत सिंह
भगत सिंह का लाहौर से खासा संबंध रहा। भगत सिंह की पढ़ाई लाहौर में हुई। हालांकि भगत सिंह का परिवार सिख (संधू जाट) था। लेकिन भगत सिंह के दादा ने भगत सिंह को लाहौर स्थित आर्य समाज से संबंधित स्कूल में पढ़ाई के लिए डाला, क्योंकि उस समय लाहौर के खालसा स्कूल में भगत सिंह को इसलिए नही डाला कि उस समय खालसा स्कूल ब्रिटिश सरकार के नजदीक थे।
भगत सिंह की फांसी भी लाहौर में हुई। भगत सिंह के फांसी स्थल को वर्तमान में सदमान चौक बोलते हैं। यह लाहौर में स्थित है। यह ब्रिटिश राज में लाहौर जेल का एक पार्ट था, जहां पर भगत सिंह को फांसी दी गई थी। फिलहाल सदमान चौक शहर का गुलजार इलाका है जिसके आसपास बसे रिहायशी इलाकों में पाकिस्तान के अमीर लोग रहते हैं।
सदमान चौक को ही भगत सिंह के नाम करने की मांग लगातार फाउंडेंशन ने की है। एक बार इस मामले में फाउंडेशन को सफलता मिल गई थी। लाहौर नगर प्रशासन ने सदमान चौक को भगत सिंह के नाम पर करने के आदेश जारी कर दिए थे। लेकिन इसके बाद एकाएक शहर में ही मजबूत हाफिज सईद ने धमकी दे दी। उसने भगत सिंह काफिर करार दिया। यहां पर हाफिज सईद की फिर से जीत हो गई। नगर प्रशासन पीछे हट गया। मामला फिर अभी कोर्ट में है।
हालांकि भगत सिंह क याद फैसलाबाद जिले के बंगा गांव से भी जुड़ी है जहां वो पैदा हुए। 23 मार्च को यहां ख़ास कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भगत सिंह के परिवार का बनाया हुआ घर आज भी यहां मौजूद है। भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह ने 120 साल पहले जो आम का पेड़ लगाया था, वो आज भी मौजूद है। उनके गांव का नाम बदल कर भगतपुरा रख दिया गया है।
पाकिस्तानी सेना और सरकार भगत सिंह से आज भी दूरी बनाए है।
- फोटो : Amar Ujala
पाकिस्तानी सेना और सरकार की भगत सिंह से दूरी
पाकिस्तानी सेना और सरकार भगत सिंह से आज भी दूरी बनाए है। पाकिस्तान के कट्टरपंथी जमात भगत सिंह के नाम से भड़क जाते हैं। कट्टरपंथियों की जमात भगत सिंह को ‘काफिर’ करार देती है, इसलिए ‘काफिर’ के नाम पर सदमान चौक का नाम बदला जाना हाफिज सईद को नापसंद है। जबकि पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान एक सोची समझी रणनीति के तहत भगत सिंह से दूरी बनाकर रखे हुए हैं।
हालांकि पाकिस्तानी पंजाब के मुस्लिम जाट भगत सिंह को काफी सम्मान से देखते हैं। उसका कारण जातीय भी है। भगत सिंह सिख जाट कम्युनिटी के संधू क्लैन से संबंधित थे। पाकिस्तानी पंजाब में मुस्लिम जाटों में संधू क्लैन मजबूत है। लेकिन पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और सेना की नजर में भगत सिंह कम्युनिस्ट और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे।
ये विचारधारा पाकिस्तानी सैन्य स्टैबलिशमेंट को भी कभी पसंद नहीं रही है। जनरल जियाउलहक से लेकर जुल्फिकार अली भुट्टो तक ने कम्युनिस्ट मूवमेंट को पाकिस्तान में बुरी तरह से रौंदा। किसी जमानें में कराची और लाहौर में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान, इससे जुड़े श्रम संगठन और छात्र यूनियन मजबूत थे।
अफगानिस्तान से लगते सीमांत इलाकों में भी कम्युनिस्ट युवाओं की जमात पैठ करने लगी थी। पाकिस्तान के युवा 1970 से 1990 तक रूस और पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट मुल्कों में पढ़ने भी जाते थे। वे भगत सिंह को भी पढ़ते थे। लेकिन 1970 के दशक में तथाकथित इस्लामी समाजवादी जुल्फिकार अली भुटटो ने सबसे पहले युवा कम्युनिस्टों, खासकर कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले युवाओं का जोरदार दमन किया।
जनरल जियाउलहक ने तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया था। इन घटनाओं से समझा जाता है कि आखिर पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट भगत सिंह से क्यों दूर बनाती है। क्योंकि भगत सिंह क विचारधारा पाकिस्तानी युवाओं को जेहादी के बजाए तार्किक बनाएगा।