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देश पर राज करने वाले देश के दिल की हालत से बेख़बर थे। दिल्ली विधानसभा के नतीजों से यह साबित हो गया। भले ही इसे पूर्ण राज्य का दर्ज़ा नहीं हासिल है ,लेकिन इस चुनाव पर सारे मुल्क़ की निग़ाहें लगीं थीं। किसी पूर्ण राज्य से कहीं अधिक रोमांचक,अराजक,अभद्र और अश्लील चुनाव भारत के इतिहास में संभवतः आज तक नहीं हुआ होगा।
दरअसल, बीते बयालीस साल का तो मैं गवाह हूं। चुनाव जैसे लोकतान्त्रिक अनुष्ठान में इतनी गंदगी घोलने का काम भी संसार की सबसे बड़ी जनतांत्रिक पार्टी ने किया-यह और भी तक़लीफ़देह है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ,राजस्थान , महाराष्ट्र और झारखंड में सरकारें खोने की खीज दिल्ली की सल्तनत के लिए इतना बेक़ाबू कर देगी-किसी ने सोचा न था।
वैसे तो एक्ज़िट पोल याने परिणाम पूर्वानुमानों ने इस चुनाव के नतीज़ों की इबारत लिख दी थी। सिर्फ़ औपचारिकता बाक़ी थी। वह भी पूरी हो गई। देखा जाए तो तीनों बड़ी पार्टियों की स्थिति भी पहले दिन से ही साफ़ थी। भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली में क़रीब बत्तीस -तैंतीस फ़ीसदी स्थाई वोट बैंक है। इसी वोट प्रतिशत से उसे बत्तीस सीटें मिली थीं और तीन सीटें पाकर शर्मनाक़ पराजय भी पाई थी।
शर्मनाक़ इसलिए कि केवल सात-आठ महीने पहले ही प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की चक्रवर्ती प्रतिष्ठा हुई थी और बीजेपी का दिल्ली दुर्ग लुट गया था, इसलिए मोदी और अमित शाह का जादू तो चलना ही नहीं था।
पार्टी के लिए पांच-छह फ़ीसदी मत बढ़ाने की चुनौती थी। इसके लिए उसने सारे घोड़े खोल दिए। सांप्रदायिक विभाजन की चालें चली गईं। पाकिस्तान का क़ीमा-भुरता बना दिया गया। खुल्लमखुल्ला बलात्कार और मारकाट के हिंसक और घिनौने बयान दिए गए। हनुमानजी को शतरंजी बिसात का मोहरा बना दिया गया। किसी भी ज़िम्मेदार लोकतंत्र (स्वस्थ्य तो अब रहा नहीं ) में कोई सियासी दल इससे नीचे क्या गिरता?
देश की राजधानी में संभव है कुछ लोग पढ़े लिखे न हों और भावुक होकर वोट का निर्णय करते हों लेकिन अधिकतर तोअपने मत का इस्तेमाल विवेक से ही करते हैं। आख़िरी दौर में आक्रामक नकारात्मक अभियान ने पार्टी के परंपरागत वोटों में भी सेंध लगा दी।
मुद्दों को लेकर भी बीजेपी अनेक चुनावों से भ्रम में है। वह प्रादेशिक चुनाव में भी राज्य के हितों पर बात नहीं करती। राष्ट्रीय मसले इन निर्वाचनों में काम नहीं आते। यह उसे समझना होगा। एक के बाद एक प्रदेशों में लगातार हार का यह बड़ा कारण है। दूसरी वजह पार्टी नेताओं का अहंकार और बड़बोलापन है। बेशर्म बयानों ने बीजेपी नेताओं के अपने घरों में ही उनका मख़ौल बना दिया था।
तीसरा पार्टी में दिल्ली का कोई दमदार चेहरा नहीं होना था। इस बार अरुण जेटली और सुषमा स्वराज भी नहीं थे। इस ऐतिहासिक शहर की अस्मिता के लिए कौन बात करता? हर्षवर्धन और किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर पिछले दो चुनावों में मतदाता नक़ार चुके हैं। बाहरी प्रदेशों से आए नेता संसद के चुनाव में तो यहां चल जाते हैं,लेकिन दिल्ली प्रदेश में उन पर यक़ीन कम होता है।
पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं को मोदी-शाह के बिना चुनाव लड़ना और जीतना सीखना होगा। सिर्फ़ दो चेहरों पर निर्भरता विश्व के सबसे बड़े दल के लिए सेहतमंद नहीं है। बेचारे नए नवेले राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए तो यह चुनाव सिर मुंडाते ही ओले पड़े जैसे हैं।
आम आदमी पार्टी ने सरकार बनाने की हैट्रिक लगाईं है। अरविन्द केजरीवाल ने शुरू के ढाई साल तक जिस मसखरे-अंदाज़ में दिल्ली -दरबार संचालित किया,उसने इस जुगनू जैसे दल के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए थे। मगर पिछले दो साल में केजरीवाल ने अपने आप को जिस तरह बदला,वह क़ाबिले तारीफ़ है।
दरअसल, उन्होंने सकारात्मक राजनीति की। इसका फ़ायदा उन्हें मिला। उम्मीद की जानी चाहिए कि अरविन्द की परिपक्वता उन्हें भविष्य में प्रतिपक्ष के चेहरे का संकट दूर करने में सहायता करेगी। उनके दल की जीत का यह अर्थ नहीं है कि वे अपने पंख अब राष्ट्रीय स्तर पर फैला सकते हैं। उस नज़रिए से उन्हें संगठन और अपने आप में बहुत सुधार की ज़रूरत है।
कांग्रेस इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकती थी। पार्टी ने देख लिया था कि जिस तरह उत्तरप्रदेश में उसका जनाधार समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी ने चुरा लिया था, वही काम केजरीवाल ने दिल्ली में किया था। शीला दीक्षित जैसा सितारा चेहरा भी अब कांग्रेस के पास नही रहा। दुर्बल होती एक वयोवृद्ध राष्ट्रीय पार्टी के लिए बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना ज़रूरी था तो उसे मुल्क़ की राजधानी का चुनाव इस मज़ाकिया अंदाज़ में ही लड़ना था।
देखा जाए तो अगर उसने पूरी ताक़त से यह लड़ाई लड़ी होती तो अपना और आम आदमी पार्टी दोनों का नुक़सान कर बैठती। बीजेपी इसका लाभ उठाती, इसलिए कांग्रेस को अब अगले पांच साल अपना दिल्ली का घर ठीक करने में लगाने चाहिए। इस पुराने दल की गतिविधियां देखकर कभी कभी लगता है कि यह रोडवेज की बस जैसी हो गई है , जिसमें हॉर्न के अलावा सब कुछ बजता है ।
बहरहाल ! दिल्ली चुनाव अपने कलंकित अभियान के कारण भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में लंबे समय तक याद रहेंगे।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
देश पर राज करने वाले देश के दिल की हालत से बेख़बर थे। दिल्ली विधानसभा के नतीजों से यह साबित हो गया। भले ही इसे पूर्ण राज्य का दर्ज़ा नहीं हासिल है ,लेकिन इस चुनाव पर सारे मुल्क़ की निग़ाहें लगीं थीं। किसी पूर्ण राज्य से कहीं अधिक रोमांचक,अराजक,अभद्र और अश्लील चुनाव भारत के इतिहास में संभवतः आज तक नहीं हुआ होगा।
दरअसल, बीते बयालीस साल का तो मैं गवाह हूं। चुनाव जैसे लोकतान्त्रिक अनुष्ठान में इतनी गंदगी घोलने का काम भी संसार की सबसे बड़ी जनतांत्रिक पार्टी ने किया-यह और भी तक़लीफ़देह है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ,राजस्थान , महाराष्ट्र और झारखंड में सरकारें खोने की खीज दिल्ली की सल्तनत के लिए इतना बेक़ाबू कर देगी-किसी ने सोचा न था।
वैसे तो एक्ज़िट पोल याने परिणाम पूर्वानुमानों ने इस चुनाव के नतीज़ों की इबारत लिख दी थी। सिर्फ़ औपचारिकता बाक़ी थी। वह भी पूरी हो गई। देखा जाए तो तीनों बड़ी पार्टियों की स्थिति भी पहले दिन से ही साफ़ थी। भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली में क़रीब बत्तीस -तैंतीस फ़ीसदी स्थाई वोट बैंक है। इसी वोट प्रतिशत से उसे बत्तीस सीटें मिली थीं और तीन सीटें पाकर शर्मनाक़ पराजय भी पाई थी।
शर्मनाक़ इसलिए कि केवल सात-आठ महीने पहले ही प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की चक्रवर्ती प्रतिष्ठा हुई थी और बीजेपी का दिल्ली दुर्ग लुट गया था, इसलिए मोदी और अमित शाह का जादू तो चलना ही नहीं था।
आख़िरी दौर में आक्रामक नकारात्मक अभियान ने पार्टी के परंपरागत वोटों में भी सेंध लगा दी।
- फोटो : अमर उजाला
पार्टी के लिए पांच-छह फ़ीसदी मत बढ़ाने की चुनौती थी। इसके लिए उसने सारे घोड़े खोल दिए। सांप्रदायिक विभाजन की चालें चली गईं। पाकिस्तान का क़ीमा-भुरता बना दिया गया। खुल्लमखुल्ला बलात्कार और मारकाट के हिंसक और घिनौने बयान दिए गए। हनुमानजी को शतरंजी बिसात का मोहरा बना दिया गया। किसी भी ज़िम्मेदार लोकतंत्र (स्वस्थ्य तो अब रहा नहीं ) में कोई सियासी दल इससे नीचे क्या गिरता?
देश की राजधानी में संभव है कुछ लोग पढ़े लिखे न हों और भावुक होकर वोट का निर्णय करते हों लेकिन अधिकतर तोअपने मत का इस्तेमाल विवेक से ही करते हैं। आख़िरी दौर में आक्रामक नकारात्मक अभियान ने पार्टी के परंपरागत वोटों में भी सेंध लगा दी।
मुद्दों को लेकर भी बीजेपी अनेक चुनावों से भ्रम में है। वह प्रादेशिक चुनाव में भी राज्य के हितों पर बात नहीं करती। राष्ट्रीय मसले इन निर्वाचनों में काम नहीं आते। यह उसे समझना होगा। एक के बाद एक प्रदेशों में लगातार हार का यह बड़ा कारण है। दूसरी वजह पार्टी नेताओं का अहंकार और बड़बोलापन है। बेशर्म बयानों ने बीजेपी नेताओं के अपने घरों में ही उनका मख़ौल बना दिया था।
तीसरा पार्टी में दिल्ली का कोई दमदार चेहरा नहीं होना था। इस बार अरुण जेटली और सुषमा स्वराज भी नहीं थे। इस ऐतिहासिक शहर की अस्मिता के लिए कौन बात करता? हर्षवर्धन और किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर पिछले दो चुनावों में मतदाता नक़ार चुके हैं। बाहरी प्रदेशों से आए नेता संसद के चुनाव में तो यहां चल जाते हैं,लेकिन दिल्ली प्रदेश में उन पर यक़ीन कम होता है।
पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं को मोदी-शाह के बिना चुनाव लड़ना और जीतना सीखना होगा। सिर्फ़ दो चेहरों पर निर्भरता विश्व के सबसे बड़े दल के लिए सेहतमंद नहीं है। बेचारे नए नवेले राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए तो यह चुनाव सिर मुंडाते ही ओले पड़े जैसे हैं।
मुद्दों को लेकर भी बीजेपी अनेक चुनावों से भ्रम में है। वह प्रादेशिक चुनाव में भी राज्य के हितों पर बात नहीं करती।
- फोटो : PTI
आम आदमी पार्टी ने सरकार बनाने की हैट्रिक लगाईं है। अरविन्द केजरीवाल ने शुरू के ढाई साल तक जिस मसखरे-अंदाज़ में दिल्ली -दरबार संचालित किया,उसने इस जुगनू जैसे दल के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए थे। मगर पिछले दो साल में केजरीवाल ने अपने आप को जिस तरह बदला,वह क़ाबिले तारीफ़ है।
दरअसल, उन्होंने सकारात्मक राजनीति की। इसका फ़ायदा उन्हें मिला। उम्मीद की जानी चाहिए कि अरविन्द की परिपक्वता उन्हें भविष्य में प्रतिपक्ष के चेहरे का संकट दूर करने में सहायता करेगी। उनके दल की जीत का यह अर्थ नहीं है कि वे अपने पंख अब राष्ट्रीय स्तर पर फैला सकते हैं। उस नज़रिए से उन्हें संगठन और अपने आप में बहुत सुधार की ज़रूरत है।
कांग्रेस इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकती थी। पार्टी ने देख लिया था कि जिस तरह उत्तरप्रदेश में उसका जनाधार समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी ने चुरा लिया था, वही काम केजरीवाल ने दिल्ली में किया था। शीला दीक्षित जैसा सितारा चेहरा भी अब कांग्रेस के पास नही रहा। दुर्बल होती एक वयोवृद्ध राष्ट्रीय पार्टी के लिए बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना ज़रूरी था तो उसे मुल्क़ की राजधानी का चुनाव इस मज़ाकिया अंदाज़ में ही लड़ना था।
देखा जाए तो अगर उसने पूरी ताक़त से यह लड़ाई लड़ी होती तो अपना और आम आदमी पार्टी दोनों का नुक़सान कर बैठती। बीजेपी इसका लाभ उठाती, इसलिए कांग्रेस को अब अगले पांच साल अपना दिल्ली का घर ठीक करने में लगाने चाहिए। इस पुराने दल की गतिविधियां देखकर कभी कभी लगता है कि यह रोडवेज की बस जैसी हो गई है , जिसमें हॉर्न के अलावा सब कुछ बजता है ।
बहरहाल ! दिल्ली चुनाव अपने कलंकित अभियान के कारण भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में लंबे समय तक याद रहेंगे।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।