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मिर्जापुर, पहला सीजन। 'मस्ट वाच' शो। नौ के नौ एपिसोड्स। सब कुछ समेटे। कपाल भर-भर खून है इसमें; सादा नहीं-हर बार मांस के लघु लोथड़ों संग, गर्म, ठीक खोपड़ी से उफनता, ऐन कंठ से रिसरिसाता खून। तमंचे की फैक्टरियां हैं। कट्टे-उस्तरे का प्रयोग करते सच्ची-सी शक्ल के जुदा-जुदा कैडर वाले गुंडे हैं। ईमानदारी से डिलीवर की गई माताओं-बहनों की निरंतर गालियां हैं। और इन सब पर काबू करता हुआ, हर भाव-भंगिमा से लेकर महीन साउंड-रिकार्डिंग तक को मॉनिटर करता हुआ निष्णात निर्देशन। कबीर सिंह और सुपर 30 को छोड़ दें, तो हाल के वर्षों की फिल्में इस वेब कहानी के आगे पानी भरती मालूम होती हैं।
हिंसा का पूर्णनग्न, वीभत्सतम स्वरूप अब विरक्ति नहीं भरता, आनंद देता है। सेक्रेड गेम्स के बाद मिर्जापुर की महासफलता ने यह पुनः साबित किया है। गेम ऑफ थ्रोन्स, नार्कोस वगैरह क्यों विश्वव्यापी सफल हैं, यह हमें देखना है। तमाम वे तत्व हमें नए खेले में भरने हैं, जो इसे सनसनी बनाते हैं। पश्चिम की तरफ देखे बगैर कुछ रचने के हममें गुणसूत्र ही नहीं हैं, जबकि गहरे पैठें, तो पश्चिम ने अधिकांश हमारे पुराण पचा-पचाकर रचा है। रक्तबीज टर्मिनेटर से लेकर नार्निया, हैरी पॉटर, लाइन किंग, जंगल बुक आदि हर मेगा हिट में हम हैं।
बहरहाल, गौर कीजिए-आप एक भी एपिसोड घर के सदस्य साथ बैठकर नहीं देख सकते। आज के दौर में बमुश्किल इतना वक्त मिलता है कि बाप, बेटा, मां, बहन साथ बैठ पाएं। वेब सीरीज का नंगा आकर्षण उस समय को भी चुरा रहा है। वेब बुनकर हम यह भूल रहे हैं कि जहां से चीजें उठा रहे हैं, वहां का समाज भिन्न है; पर यह बात ही अपने आप में कितनी कच्ची-सी मालूम होती है। हम तो सदा वह होने में खुशी तलाशते रहे हैं, जो हम हैं नहीं। भले हम ढीली बुनावट, भोली बनावट के लोग हैं, पर अपनी महानता और दृढ़ता की मिसालें देने का गुण हमें शेष दुनिया से पृथक करता है। हमारे पास तर्क की कभी कमी नहीं रही है। भ्रष्टाचार, वासना, छल, मौकापरस्ती, दोहरापन इत्यादि हर शै को हम खजुराहो से लेकर भूख, निकम्मी सरकार जैसे अनेकानेक रेडीमेड तर्कों से ढकने में निपुण हैं। हम पर जितनी जल्दी और आसानी से जिन चीजों का असर पड़ता है, वे दुर्भाग्यवश नकारात्मक ही रही हैं। मनुष्य वृत्ति से जरा ज्यादा यह भारतीय मानसिकता है।
तब भी, जिस परिमाण में अनाचार परोसा जा रहा है, वह निस्संदेह भारत के ढांचे पर हमला है। हर नई आती वेब सीरीज इस तथ्य का खुला एलान है कि बदलते संसार की नई अभिरुचियों के नाम पर भारत देश की संरचना-संस्कृति इत्यादि की प्रत्येक कोने से खबर ली जाएगी। अभी किसी में इस पर एतराज उठाने का दम नहीं है। हर जरूरी मुद्दे की तरह इस मुद्दे पर भी ज्यादा बहसें नहीं हो रही हैं। बस, चुपचाप रसास्वादन हो रहा है। लोग चालीस-चालीस मिनट के दस एपिसोड्स एक झटके में देख रहे हैं। यह जादू है। मोहपाश है।
भारत देश के अवाम ने हमेशा अपने नैराश्य से फौरी तौर पर निपटने के लिए सितारे गढ़े हैं। नेहरू-इंदिरा से लेकर दिलीप कुमार-अमिताभ-शाहरुख-सलमान तक का तिलिस्म दो पल को आम आदमी के रिसते स्व में नामालूम-सी आशा की इंस्टंट दवा लगाता रहा है। आलम यह है कि वह तिलिस्म भी इस वेब खेल के आगे खो रहा है। 'कांचाओं' को लतियाते हुए 'विजय दीनानाथ चौहान' में आम आदमी ने जिस तरह अपनी विजय तलाशी थी, शायद वैसे ही अब वह उस्तरे से कटते गले को देख अजब-सी जीत का लुत्फ उठा रहा है।
यह सब स्वस्थ नहीं है। न वेब-लेखक की सोच, न वेब निर्देशक की निपुणता, न वेब चैनल्स की व्यावसायिकता-कुछ भी स्वस्थ नहीं है। यह निरा वीभत्स है, जिसके दीर्घ कुअसर होने अवश्यंभावी हैं। हथौड़ा त्यागी होना बहुतों को बहुत मुफीद पड़ सकता है। यह मनोरंजन नहीं है। इसमें संतुलन का अर्क डालना नितांत जरूरी है। इसमें सेंसर की कैंची वांछनीय है। हम क्यों भूलें कि देश ने एकता कपूर के सास-बहू मॉडल के बावजूद पारिवारिक रूप से एक रहकर दिखाया है।
मिर्जापुर, पहला सीजन। 'मस्ट वाच' शो। नौ के नौ एपिसोड्स। सब कुछ समेटे। कपाल भर-भर खून है इसमें; सादा नहीं-हर बार मांस के लघु लोथड़ों संग, गर्म, ठीक खोपड़ी से उफनता, ऐन कंठ से रिसरिसाता खून। तमंचे की फैक्टरियां हैं। कट्टे-उस्तरे का प्रयोग करते सच्ची-सी शक्ल के जुदा-जुदा कैडर वाले गुंडे हैं। ईमानदारी से डिलीवर की गई माताओं-बहनों की निरंतर गालियां हैं। और इन सब पर काबू करता हुआ, हर भाव-भंगिमा से लेकर महीन साउंड-रिकार्डिंग तक को मॉनिटर करता हुआ निष्णात निर्देशन। कबीर सिंह और सुपर 30 को छोड़ दें, तो हाल के वर्षों की फिल्में इस वेब कहानी के आगे पानी भरती मालूम होती हैं।
हिंसा का पूर्णनग्न, वीभत्सतम स्वरूप अब विरक्ति नहीं भरता, आनंद देता है। सेक्रेड गेम्स के बाद मिर्जापुर की महासफलता ने यह पुनः साबित किया है। गेम ऑफ थ्रोन्स, नार्कोस वगैरह क्यों विश्वव्यापी सफल हैं, यह हमें देखना है। तमाम वे तत्व हमें नए खेले में भरने हैं, जो इसे सनसनी बनाते हैं। पश्चिम की तरफ देखे बगैर कुछ रचने के हममें गुणसूत्र ही नहीं हैं, जबकि गहरे पैठें, तो पश्चिम ने अधिकांश हमारे पुराण पचा-पचाकर रचा है। रक्तबीज टर्मिनेटर से लेकर नार्निया, हैरी पॉटर, लाइन किंग, जंगल बुक आदि हर मेगा हिट में हम हैं।
बहरहाल, गौर कीजिए-आप एक भी एपिसोड घर के सदस्य साथ बैठकर नहीं देख सकते। आज के दौर में बमुश्किल इतना वक्त मिलता है कि बाप, बेटा, मां, बहन साथ बैठ पाएं। वेब सीरीज का नंगा आकर्षण उस समय को भी चुरा रहा है। वेब बुनकर हम यह भूल रहे हैं कि जहां से चीजें उठा रहे हैं, वहां का समाज भिन्न है; पर यह बात ही अपने आप में कितनी कच्ची-सी मालूम होती है। हम तो सदा वह होने में खुशी तलाशते रहे हैं, जो हम हैं नहीं। भले हम ढीली बुनावट, भोली बनावट के लोग हैं, पर अपनी महानता और दृढ़ता की मिसालें देने का गुण हमें शेष दुनिया से पृथक करता है। हमारे पास तर्क की कभी कमी नहीं रही है। भ्रष्टाचार, वासना, छल, मौकापरस्ती, दोहरापन इत्यादि हर शै को हम खजुराहो से लेकर भूख, निकम्मी सरकार जैसे अनेकानेक रेडीमेड तर्कों से ढकने में निपुण हैं। हम पर जितनी जल्दी और आसानी से जिन चीजों का असर पड़ता है, वे दुर्भाग्यवश नकारात्मक ही रही हैं। मनुष्य वृत्ति से जरा ज्यादा यह भारतीय मानसिकता है।
तब भी, जिस परिमाण में अनाचार परोसा जा रहा है, वह निस्संदेह भारत के ढांचे पर हमला है। हर नई आती वेब सीरीज इस तथ्य का खुला एलान है कि बदलते संसार की नई अभिरुचियों के नाम पर भारत देश की संरचना-संस्कृति इत्यादि की प्रत्येक कोने से खबर ली जाएगी। अभी किसी में इस पर एतराज उठाने का दम नहीं है। हर जरूरी मुद्दे की तरह इस मुद्दे पर भी ज्यादा बहसें नहीं हो रही हैं। बस, चुपचाप रसास्वादन हो रहा है। लोग चालीस-चालीस मिनट के दस एपिसोड्स एक झटके में देख रहे हैं। यह जादू है। मोहपाश है।
भारत देश के अवाम ने हमेशा अपने नैराश्य से फौरी तौर पर निपटने के लिए सितारे गढ़े हैं। नेहरू-इंदिरा से लेकर दिलीप कुमार-अमिताभ-शाहरुख-सलमान तक का तिलिस्म दो पल को आम आदमी के रिसते स्व में नामालूम-सी आशा की इंस्टंट दवा लगाता रहा है। आलम यह है कि वह तिलिस्म भी इस वेब खेल के आगे खो रहा है। 'कांचाओं' को लतियाते हुए 'विजय दीनानाथ चौहान' में आम आदमी ने जिस तरह अपनी विजय तलाशी थी, शायद वैसे ही अब वह उस्तरे से कटते गले को देख अजब-सी जीत का लुत्फ उठा रहा है।
यह सब स्वस्थ नहीं है। न वेब-लेखक की सोच, न वेब निर्देशक की निपुणता, न वेब चैनल्स की व्यावसायिकता-कुछ भी स्वस्थ नहीं है। यह निरा वीभत्स है, जिसके दीर्घ कुअसर होने अवश्यंभावी हैं। हथौड़ा त्यागी होना बहुतों को बहुत मुफीद पड़ सकता है। यह मनोरंजन नहीं है। इसमें संतुलन का अर्क डालना नितांत जरूरी है। इसमें सेंसर की कैंची वांछनीय है। हम क्यों भूलें कि देश ने एकता कपूर के सास-बहू मॉडल के बावजूद पारिवारिक रूप से एक रहकर दिखाया है।