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माना जाता है कि कैंसर का पता चलने के बाद गरीब या फिर कम पढ़े लिखे लोग देसी दवाइयां या फिर झाड़ फूंक का सहारा लेते हैं, लेकिन हकीकत इसके उलट है। पीजीआईएमएस रोहतक में कैंसर विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे डॉ. कपिल वत्स की ओर से किए गए शोध में पाया गया है कि ज्यादा पढ़े लिखे और अच्छी इनकम वाले लोग ही कैंसर का पता लगने के बाद इलाज बीच में छोड़कर देसी जुगाड़ में लग जाते हैं। गलती का अहसास उन्हें तब होता है जब समय निकल चुका होता है।
कल्पना चावला मेडिकल कालेज में हुई सर्जन आफ इंडिया के राज्य स्तरीय अधिवेशन में यह शोध पेश किया गया। डॉ. कपिल ने बताया कि उन्होंने यह शोध एक साल में पूरा किया है। कुल 215 मरीजों को इसमें शामिल किया गया है। इनमें से 116 लोगों ने कैंसर का पता लगते ही देसी दवाइयां लेनी शुरू कर दी, जबकि 99 लोगों ने एलोपैथी से इलाज जारी रखा। खास बात ये है कि अब एक साल के बाद आराम नहीं मिलने पर 97 लोगों ने देसी दवाइयां छोड़ दी और दोबारा से इलाज के लिए पीजीआई पहुंचे।
लेकिन अब उनकी स्थिति खराब हो चुकी है, क्योंकि जब उन्हें पता चला तो कैंसर प्रथम स्टेज पर था, लेकिन अब उनकी स्टेज बढ़ चुकी है। वहीं, केवल 19 लोग ऐसे हैं, जो आज भी अन्य दवाइयां ले रहे हैं। डॉ. कपिल ने यह शोध पीजीआईएमएस रोहतक के कैंसर सर्जन प्रोफेसर डॉ. आरके कड़वासरा व एआर बंसल के नेतृत्व में किया है।
शोध में ये भी पाया गया है कि कैंसर का पता लगने ओर इलाज चालू होने के बाद से झाड़ फूंक और देसी दवाइयों के चक्कर में पड़ने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है। इसके अलावा, धर्म की बात करें तो इनमें मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा है।
जागरूकता की जरूरत: डॉ. कड़वासरा
पीजीआईएमएस रोहतक के कैंसर सर्जन वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. आरके कड़वासरा और डॉ. एआर बंसल का कहना है कि ये गंभीर बात है। कैंसर के नाम पर फर्जीवाड़ा किया जा रहा है, बल्कि मरीजों की स्थिति को और बिगाड़ा जा रहा है। इसको लेकर जागरूकता की जरूरत है। शुरुआती दौर में ही अगर कैंसर का पता लग जाए तो उसका इलाज संभव है, लेकिन लोग पता लगने के बाद देसी दवाइयों या झाड़फूंक का सहारा लेते हैं, जो गलत है। इससे मरीजों का भला होने की बजाए मर्ज बढ़ जाता है और व्यक्ति को जान गंवाना पड़ता है।
पैसा और जीवन दोनों बर्बाद कर रहे मरीज: डॉ. कपिल
शोध करने वाले डॉ. कपिल वत्स का कहना है कि वर्ष एक साल तक किया गया शोध इस बात की पुष्टि करता है कि लोग कैंसर के इलाज को लेकर अभी भ्रमित हैं और अपने पैसे के साथ साथ जीवन को भी खराब कर रहे हैं। कैंसर का पता लगने पर झाड़ फूंक कराने की बजाए संस्थान में अपना इलाज कराएं। कीमोथैरेपी व रेडियोथैरेपी समेत कैंसर का इलाज संभव है, लेकिन इसका प्राथमिक स्टेज पर पता चलना जरूरी है।
डॉ. कपिल ने बताया कि हरियाणा के एक गांव का व्यक्ति पीजीआई पहुंचा। कैंसर का पता लगने के बाद कुछ दिन तो उसे इलाज कराया, लेकिन बीच में दवाइयां छोड़कर देसी दवाइयां लेने लगा। अब एक साल के बाद वह दोबारा से पीजीआई पहुंचा तो उसके कैंसर की स्टेज काफी ज्यादा बढ़ गई है, जबकि पहले उसकी स्टेज प्रथम थी और उसका इलाज सही चल रहा था। अब वह पछता रहा है, न तो उसे देसी दवाइयों ने आराम किया और अब वह कीमोथैरेपी लेने के भी लायक नहीं रहा है।
हरियाणा में तेजी से बढ़ रहा कैंसर
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, कैंसर के सबसे अधिक मामले हरियाणा में दर्ज किए गए हैं। पिछले साल के आंकड़ों पर गौर करें तो करीब 39.6 प्रतिशत मामलों के साथ हरियाणा इसमें पहले स्थान पर रहा, जबकि दिल्ली में ये मामले 27.3 प्रतिशत रहे। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक भारत में करीब 17.3 लाख कैंसर के मामले सामने आ सकते हैं। इसमें सबसे बड़ा ग्राफ ब्रेस्ट व गर्भाशय कैंसर के अलावा, ग्रीवा और फेफड़े के कैंसर का होगा।
माना जाता है कि कैंसर का पता चलने के बाद गरीब या फिर कम पढ़े लिखे लोग देसी दवाइयां या फिर झाड़ फूंक का सहारा लेते हैं, लेकिन हकीकत इसके उलट है। पीजीआईएमएस रोहतक में कैंसर विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे डॉ. कपिल वत्स की ओर से किए गए शोध में पाया गया है कि ज्यादा पढ़े लिखे और अच्छी इनकम वाले लोग ही कैंसर का पता लगने के बाद इलाज बीच में छोड़कर देसी जुगाड़ में लग जाते हैं। गलती का अहसास उन्हें तब होता है जब समय निकल चुका होता है।
कल्पना चावला मेडिकल कालेज में हुई सर्जन आफ इंडिया के राज्य स्तरीय अधिवेशन में यह शोध पेश किया गया। डॉ. कपिल ने बताया कि उन्होंने यह शोध एक साल में पूरा किया है। कुल 215 मरीजों को इसमें शामिल किया गया है। इनमें से 116 लोगों ने कैंसर का पता लगते ही देसी दवाइयां लेनी शुरू कर दी, जबकि 99 लोगों ने एलोपैथी से इलाज जारी रखा। खास बात ये है कि अब एक साल के बाद आराम नहीं मिलने पर 97 लोगों ने देसी दवाइयां छोड़ दी और दोबारा से इलाज के लिए पीजीआई पहुंचे।
लेकिन अब उनकी स्थिति खराब हो चुकी है, क्योंकि जब उन्हें पता चला तो कैंसर प्रथम स्टेज पर था, लेकिन अब उनकी स्टेज बढ़ चुकी है। वहीं, केवल 19 लोग ऐसे हैं, जो आज भी अन्य दवाइयां ले रहे हैं। डॉ. कपिल ने यह शोध पीजीआईएमएस रोहतक के कैंसर सर्जन प्रोफेसर डॉ. आरके कड़वासरा व एआर बंसल के नेतृत्व में किया है।
चक्कर में पड़ने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा
शोध में ये भी पाया गया है कि कैंसर का पता लगने ओर इलाज चालू होने के बाद से झाड़ फूंक और देसी दवाइयों के चक्कर में पड़ने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है। इसके अलावा, धर्म की बात करें तो इनमें मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा है।
जागरूकता की जरूरत: डॉ. कड़वासरा
पीजीआईएमएस रोहतक के कैंसर सर्जन वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. आरके कड़वासरा और डॉ. एआर बंसल का कहना है कि ये गंभीर बात है। कैंसर के नाम पर फर्जीवाड़ा किया जा रहा है, बल्कि मरीजों की स्थिति को और बिगाड़ा जा रहा है। इसको लेकर जागरूकता की जरूरत है। शुरुआती दौर में ही अगर कैंसर का पता लग जाए तो उसका इलाज संभव है, लेकिन लोग पता लगने के बाद देसी दवाइयों या झाड़फूंक का सहारा लेते हैं, जो गलत है। इससे मरीजों का भला होने की बजाए मर्ज बढ़ जाता है और व्यक्ति को जान गंवाना पड़ता है।
पैसा और जीवन दोनों बर्बाद कर रहे मरीज: डॉ. कपिल
शोध करने वाले डॉ. कपिल वत्स का कहना है कि वर्ष एक साल तक किया गया शोध इस बात की पुष्टि करता है कि लोग कैंसर के इलाज को लेकर अभी भ्रमित हैं और अपने पैसे के साथ साथ जीवन को भी खराब कर रहे हैं। कैंसर का पता लगने पर झाड़ फूंक कराने की बजाए संस्थान में अपना इलाज कराएं। कीमोथैरेपी व रेडियोथैरेपी समेत कैंसर का इलाज संभव है, लेकिन इसका प्राथमिक स्टेज पर पता चलना जरूरी है।
बीच में छोड़ा इलाज, अब पछता रहा
डॉ. कपिल ने बताया कि हरियाणा के एक गांव का व्यक्ति पीजीआई पहुंचा। कैंसर का पता लगने के बाद कुछ दिन तो उसे इलाज कराया, लेकिन बीच में दवाइयां छोड़कर देसी दवाइयां लेने लगा। अब एक साल के बाद वह दोबारा से पीजीआई पहुंचा तो उसके कैंसर की स्टेज काफी ज्यादा बढ़ गई है, जबकि पहले उसकी स्टेज प्रथम थी और उसका इलाज सही चल रहा था। अब वह पछता रहा है, न तो उसे देसी दवाइयों ने आराम किया और अब वह कीमोथैरेपी लेने के भी लायक नहीं रहा है।
हरियाणा में तेजी से बढ़ रहा कैंसर
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, कैंसर के सबसे अधिक मामले हरियाणा में दर्ज किए गए हैं। पिछले साल के आंकड़ों पर गौर करें तो करीब 39.6 प्रतिशत मामलों के साथ हरियाणा इसमें पहले स्थान पर रहा, जबकि दिल्ली में ये मामले 27.3 प्रतिशत रहे। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक भारत में करीब 17.3 लाख कैंसर के मामले सामने आ सकते हैं। इसमें सबसे बड़ा ग्राफ ब्रेस्ट व गर्भाशय कैंसर के अलावा, ग्रीवा और फेफड़े के कैंसर का होगा।