जलियांवाला कांड की 100वीं बरसी पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत राजनेताओं ने श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर एक बार फिर 'द लास्ट पोस्ट' धुन बजाकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई। 'द लास्ट पोस्ट', जी हां! देश की सेवा में जान देने वाले जांबाज जवानों की शहादत पर बजने वाला धुन तो आपने सुना ही होगा! यह संगीत खास तौर से सेना और उनसे जुड़े लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जो युद्ध में शहीद हुए। उनके लिए यह लास्ट पोस्ट नोट बहुत जाना-पहचाना हुआ है, जिन्होंने देश सेवा की है। यह धुन इतनी मार्मिक होती है कि इसे सुनते ही हम राष्ट्र के प्रति त्याग की भावना से भर जाते हैं।
कभी ब्रिटिश संस्कृति से निकला यह धुन ब्रिटिश उपनिवेशवाद का हिस्सा रहे देश, जिन्होंने ब्रिटिश संस्कृति का विरोध किया, वहां भी फॉलो किया गया। यहां तक कि ब्रिटिश सरकार के विरोधी महान विभूति महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला की मृत्यु के बाद भी लास्ट पोस्ट बजा कर श्रद्धांजलि दी गई। जाति, धर्म, राज्य व देश की सीमाओं से परे पूरे विश्व में बजने वाला यह धुन मानवता की एक मिसाल पेश करता है।
द लास्ट पोस्ट एक ऐसी विशिष्ट धुन है, जो सैकड़ों सालों से अस्तित्व में है। आइए जानते हैं इसके आम से खास होने की कहानी
इसकी कहानी बहुत ही रोचक है कि इसकी शुरुआत सैकड़ों वर्ष पहले हुई। यह एक ऐसा धुन है, जो पूरी दुनिया को मानवता के रूप में सामने रखता है। इस धुन में देश, धर्म, जाति किसी भी प्रकार की सीमा नहीं है। यह एक ऐसा धुन है, जो लोगों को उनकी याद दिलाता है कि कोई व्यक्ति अपने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान या वीरगति को प्राप्त हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस धुन का प्रयोग युद्ध में शहीद हुए जवानों के लिए ही किया जाता रहा है। कई बार इसका प्रयोग शहादत को याद करने के लिए, स्मारकों के आस पास ध्यान देने दिलाने के लिए भी किया जाता है। वस्तुत: यह धुन केवल शोक प्रकट करने के लिए नहीं है।
बगलर आर्थर लेन से जुड़ी है कहानी
सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहासकार एल्विन डब्ल्यू टर्नर के अनुसार, लास्ट पोस्ट का शोक से कोई लेना देना नहीं था। 1942 में जापान द्वारा सिंगापुर पर कब्जे के दौरान ब्रिटिश सेना का एक बगलर था- आर्थर लेन। श्मसान में शवों के अंतिम संस्कार की जिम्मेवारी उसी की थी। वह देखता था कि शव का ठीक से संस्कार किया गया है या नहीं। लेकिन पूरी जिंदगी वह बुरे सपनों से परेशान रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसने कभी लास्ट पोस्ट की धुन नहीं बजाई।
इसके नोट थोड़े लंबे हैं, बीच में पॉज भी लंबे हैं, लेकिन यह धुन जो है शोक व्यक्त करने का संकेत बन गया है। शहादत पर लास्ट पोस्ट की यह धुन 45 से लेकर 75 सेकेंड तक बजाई जाती है। आम तौर पर जब अंतिम संस्कार होता है तो मौन खत्म होने के बाद यह बजाई जाती है।
तो इसलिए नाम पड़ा लास्ट पोस्ट
साल 1790 के दौरान इसकी विधिवत शुरुआत ब्रिटिश सैन्य दिवस के अवसर के हिसाब से मानी जाती है। उस दौरान ऐसा हुआ कि जब सैनिकों की ड्यूटी बदलती थी तो उस दौरान 30 मिनट का समय लगता था। तो अंतिम संतरी के निरीक्षण के दौरान इस धुन का इस्तेमाल होता था।
चूंकि अंतिम पोस्ट का निरीक्षण होता था, इसलिए धुन को लास्ट पोस्ट नाम दिया गया। लास्ट पोस्ट पर जो सैन्य अधिकारी पहुंचते थे और उस दौरान जो बिगुल बजाया जाता था, उसी आम धुन का नाम लास्ट पोस्ट पड़ गया।
सैनिकों के लास्ट पोस्ट की चेकिंग से लेकर उनकी लास्ट ड्यूटी तक और फिर उनके जीवन के अंत का यह प्रतीक बन गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही इसे मान लिया गया कि सैनिकों की आखिरी पोस्ट पर इसे बजाना अनिवार्य रहेगा।
सबसे पहले ब्रिटिश सेना ने किया था प्रयोग
शुरू शुरू में लास्ट पोस्ट की यह धुन कुछ खास नहीं, बल्कि एक साधारण संगीत जैसा ही था। इसके इतिहास में जाएं तो सबसे पहले ब्रिटिश सेना ने इसका इस्तेमाल किया था। साल 1790 से इसकी शुरुआत मानी जाती है।
उन दिनों इस धुन का प्रयोग सैनिकों के समय पर नजर रखने के लिए किया जाता था। उन दिनों सेना की अलग-अलग टुकड़ियों को अलग-अलग संगीत के जरिए निर्देशित किया जाता था कि कब क्या करना है। धुनों के माध्यम से ही सैनिक समझ पाते थे कि कौन-सी धुन किस काम के लिए है, खाने के लिए है, गाने के लिए है, सोने के लिए है या कहीं जाने के लिए है, वगैरह-वगैरह।
हर निश्चित समय अंतराल पर सैनिकों के लिए बिगुल बजाए जाते थे और इसलिए उस समय बिगुल बजाने वाले यानि कि बगलर का ट्रेंड भी था।
आज भी इंडियन मिलिट्री ट्रेनिंग एकेडमी से लेकर हर देश में सैन्य अकादमियों और शिविर में सेनाओं के दिन की शुरुआत बिगुलर से होती है। सुबह-सुबह बिगुल से उनकी नींद खुलती है और शाम की शुरुआत में लास्ट पोस्ट की धुन से होती थी।
इसके बाद दशकों तक धुनों का इस्तेमाल इसी रुप में किया जाता रहा, जो सैनिकों को उनका रूटीन बताता रहा था कि सैनिकों के दिन पूरे हो गए, सैनिक सुरक्षित हैं, उन्हें कब जगना है, कब खाना है, कब सोना है वगैरह-वगैरह।
धीरे-धीरे बदला ट्रेंड और नए चलन में उभरी धुन
18वीं शताब्दी तक पूरी दुनिया में मैदानी जंग के संकेत मिलते हैं। इसके बाद युद्ध का ट्रेंड बदल गया। समुद्र से लेकर आसमान तक हो गया और इस लिहाज से बिगुल का ट्रेंड भी बदला।
अब सेना की आवश्यकता थल सेना, वायु सेना और नौ सेना के रूप में होने लगी। उनकी लड़ाइयां भी अलग-अलग रही। इस लिहाज से बैंड मास्टरों ने अपने को सेना के साथ समझना शुरू कर दिया गया। उनकी बहालियां भी उसी तरह की जाने लगी।
दुनिया के दूसरे कई देशों में जब सैनिक शहीद होते थे, तो उनकी अंतिम यात्रा में बैंड धुन बजाया जाता था। हालांकि यह परंपरा लंबे समय तक जारी नहीं रखी जा सकी। धीरे-धीरे बैंड ने एक नई तरीके की परंपरा की शुरुआत की। इसके अनुसार, जो लोग शहीद हुए हैं, उनकी कब्र पर लास्ट पोस्ट बजाने का चलन शुरू हुआ।
इसी परंपरा ने बाद में नया रूप ले लिया। तब तक यह स्पष्ट वादन तो नहीं था, लेकिन यह एक प्रतीक के तौर पर उभरा कि किसी सैनिक ने वीरगति प्राप्त की है, उसके जीवन का अंत हो गया है, उसने देश की सुरक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है।
विश्वयुद्ध के समय परंपरा बन गई लास्ट पोस्ट
19वीं शताब्दी की शुरुआत में लास्ट पोस्ट एक नए रूप में उभरा। कारण कि इसी दौरान ज्यादा युद्ध हुए। मसलन 1914 से 1918 तक प्रथम विश्वयुद्ध, 1939 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध। इस लिहाज से अकेले केवल इंग्लैंड में इस तरह के ट्रेंड बढ़े। इसी समय शहीदों को सूचीबद्ध किए जाने की भी शुरुआत हुई।
इस दौरान इतनी बड़ी संख्या में सैनिक शहीद हुए कि सभी के नाम स्मारक बनाना संभव नहीं था। ऐसे में उन्हें अंतिम विदाई देने को लास्ट पोस्ट की धुन बजाए जाने का ट्रेंड बहुत तेजी से उभरा।
चूंकि ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में शहीदों के स्मारक बनाने की परंपरा रही है, तो यह तय किया गया कि कम से कम उन्हें लास्ट पोस्ट बजाकर श्रद्धांजलि दी जाए। इस लिहाज से जो भी लोग अंतिम संस्कार में जाते थे, उनकी ओर से गुजारिश होती थी कि शहीद के लिए लास्ट पोस्ट बजाई जाए।
...और फिर अंतरराष्ट्रीय फलक पर छा गई यह धुन
यह भी एक परंपरा बन गई। जहां शहीदों का अंतिम संस्कार होता, जहां उन्हें दफनाया जाता या फिर जहां लोग उनके अंतिम दर्शन को पहुंचते, उन जगहों पर यह धुन बजाई जाने लगी। ऐसा भी होता था कि एक ही सैनिक को कई जगह लास्ट पोस्ट की धुन से सलामी, श्रद्धांजलि दी जाती थी। पहले जहां केवल सेना ही यह धुन सुनते थे, तो अब आम लोगों को भी यह धुन सुनाई देने लगा और उनकी भावनाएं जुड़ने लगी।
प्रथम विश्वयुद्ध तक यह बहुत लोकप्रिय हो गया तो दूसरे विश्वयुद्ध तक काफी तेजी से फैला और धीरे-धीरे लास्ट पोस्ट की यह धुन अंतरराष्ट्रीय फलक पर छा गई। अब भी यह परंपरा जारी है। जानना दिलचस्प है कि इस धुन में कहीं भी किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ। आज पूरे विश्व भर के देशों में शहादत के समय लास्ट पोस्ट की धुन बजाई जाती है।
जलियांवाला कांड की 100वीं बरसी पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत राजनेताओं ने श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर एक बार फिर 'द लास्ट पोस्ट' धुन बजाकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई। 'द लास्ट पोस्ट', जी हां! देश की सेवा में जान देने वाले जांबाज जवानों की शहादत पर बजने वाला धुन तो आपने सुना ही होगा! यह संगीत खास तौर से सेना और उनसे जुड़े लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जो युद्ध में शहीद हुए। उनके लिए यह लास्ट पोस्ट नोट बहुत जाना-पहचाना हुआ है, जिन्होंने देश सेवा की है। यह धुन इतनी मार्मिक होती है कि इसे सुनते ही हम राष्ट्र के प्रति त्याग की भावना से भर जाते हैं।
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कभी ब्रिटिश संस्कृति से निकला यह धुन ब्रिटिश उपनिवेशवाद का हिस्सा रहे देश, जिन्होंने ब्रिटिश संस्कृति का विरोध किया, वहां भी फॉलो किया गया। यहां तक कि ब्रिटिश सरकार के विरोधी महान विभूति महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला की मृत्यु के बाद भी लास्ट पोस्ट बजा कर श्रद्धांजलि दी गई। जाति, धर्म, राज्य व देश की सीमाओं से परे पूरे विश्व में बजने वाला यह धुन मानवता की एक मिसाल पेश करता है।
द लास्ट पोस्ट एक ऐसी विशिष्ट धुन है, जो सैकड़ों सालों से अस्तित्व में है। आइए जानते हैं इसके आम से खास होने की कहानी
इसकी कहानी बहुत ही रोचक है कि इसकी शुरुआत सैकड़ों वर्ष पहले हुई। यह एक ऐसा धुन है, जो पूरी दुनिया को मानवता के रूप में सामने रखता है। इस धुन में देश, धर्म, जाति किसी भी प्रकार की सीमा नहीं है। यह एक ऐसा धुन है, जो लोगों को उनकी याद दिलाता है कि कोई व्यक्ति अपने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान या वीरगति को प्राप्त हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस धुन का प्रयोग युद्ध में शहीद हुए जवानों के लिए ही किया जाता रहा है। कई बार इसका प्रयोग शहादत को याद करने के लिए, स्मारकों के आस पास ध्यान देने दिलाने के लिए भी किया जाता है। वस्तुत: यह धुन केवल शोक प्रकट करने के लिए नहीं है।
बगलर आर्थर लेन से जुड़ी है कहानी
सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहासकार एल्विन डब्ल्यू टर्नर के अनुसार, लास्ट पोस्ट का शोक से कोई लेना देना नहीं था। 1942 में जापान द्वारा सिंगापुर पर कब्जे के दौरान ब्रिटिश सेना का एक बगलर था- आर्थर लेन। श्मसान में शवों के अंतिम संस्कार की जिम्मेवारी उसी की थी। वह देखता था कि शव का ठीक से संस्कार किया गया है या नहीं। लेकिन पूरी जिंदगी वह बुरे सपनों से परेशान रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसने कभी लास्ट पोस्ट की धुन नहीं बजाई।
इसके नोट थोड़े लंबे हैं, बीच में पॉज भी लंबे हैं, लेकिन यह धुन जो है शोक व्यक्त करने का संकेत बन गया है। शहादत पर लास्ट पोस्ट की यह धुन 45 से लेकर 75 सेकेंड तक बजाई जाती है। आम तौर पर जब अंतिम संस्कार होता है तो मौन खत्म होने के बाद यह बजाई जाती है।
तो इसलिए नाम पड़ा लास्ट पोस्ट
साल 1790 के दौरान इसकी विधिवत शुरुआत ब्रिटिश सैन्य दिवस के अवसर के हिसाब से मानी जाती है। उस दौरान ऐसा हुआ कि जब सैनिकों की ड्यूटी बदलती थी तो उस दौरान 30 मिनट का समय लगता था। तो अंतिम संतरी के निरीक्षण के दौरान इस धुन का इस्तेमाल होता था।
चूंकि अंतिम पोस्ट का निरीक्षण होता था, इसलिए धुन को लास्ट पोस्ट नाम दिया गया। लास्ट पोस्ट पर जो सैन्य अधिकारी पहुंचते थे और उस दौरान जो बिगुल बजाया जाता था, उसी आम धुन का नाम लास्ट पोस्ट पड़ गया।
सैनिकों के लास्ट पोस्ट की चेकिंग से लेकर उनकी लास्ट ड्यूटी तक और फिर उनके जीवन के अंत का यह प्रतीक बन गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही इसे मान लिया गया कि सैनिकों की आखिरी पोस्ट पर इसे बजाना अनिवार्य रहेगा।
सबसे पहले ब्रिटिश सेना ने किया था प्रयोग
शुरू शुरू में लास्ट पोस्ट की यह धुन कुछ खास नहीं, बल्कि एक साधारण संगीत जैसा ही था। इसके इतिहास में जाएं तो सबसे पहले ब्रिटिश सेना ने इसका इस्तेमाल किया था। साल 1790 से इसकी शुरुआत मानी जाती है।
उन दिनों इस धुन का प्रयोग सैनिकों के समय पर नजर रखने के लिए किया जाता था। उन दिनों सेना की अलग-अलग टुकड़ियों को अलग-अलग संगीत के जरिए निर्देशित किया जाता था कि कब क्या करना है। धुनों के माध्यम से ही सैनिक समझ पाते थे कि कौन-सी धुन किस काम के लिए है, खाने के लिए है, गाने के लिए है, सोने के लिए है या कहीं जाने के लिए है, वगैरह-वगैरह।
हर निश्चित समय अंतराल पर सैनिकों के लिए बिगुल बजाए जाते थे और इसलिए उस समय बिगुल बजाने वाले यानि कि बगलर का ट्रेंड भी था।
आज भी इंडियन मिलिट्री ट्रेनिंग एकेडमी से लेकर हर देश में सैन्य अकादमियों और शिविर में सेनाओं के दिन की शुरुआत बिगुलर से होती है। सुबह-सुबह बिगुल से उनकी नींद खुलती है और शाम की शुरुआत में लास्ट पोस्ट की धुन से होती थी।
इसके बाद दशकों तक धुनों का इस्तेमाल इसी रुप में किया जाता रहा, जो सैनिकों को उनका रूटीन बताता रहा था कि सैनिकों के दिन पूरे हो गए, सैनिक सुरक्षित हैं, उन्हें कब जगना है, कब खाना है, कब सोना है वगैरह-वगैरह।
धीरे-धीरे बदला ट्रेंड और नए चलन में उभरी धुन
18वीं शताब्दी तक पूरी दुनिया में मैदानी जंग के संकेत मिलते हैं। इसके बाद युद्ध का ट्रेंड बदल गया। समुद्र से लेकर आसमान तक हो गया और इस लिहाज से बिगुल का ट्रेंड भी बदला।
अब सेना की आवश्यकता थल सेना, वायु सेना और नौ सेना के रूप में होने लगी। उनकी लड़ाइयां भी अलग-अलग रही। इस लिहाज से बैंड मास्टरों ने अपने को सेना के साथ समझना शुरू कर दिया गया। उनकी बहालियां भी उसी तरह की जाने लगी।
दुनिया के दूसरे कई देशों में जब सैनिक शहीद होते थे, तो उनकी अंतिम यात्रा में बैंड धुन बजाया जाता था। हालांकि यह परंपरा लंबे समय तक जारी नहीं रखी जा सकी। धीरे-धीरे बैंड ने एक नई तरीके की परंपरा की शुरुआत की। इसके अनुसार, जो लोग शहीद हुए हैं, उनकी कब्र पर लास्ट पोस्ट बजाने का चलन शुरू हुआ।
इसी परंपरा ने बाद में नया रूप ले लिया। तब तक यह स्पष्ट वादन तो नहीं था, लेकिन यह एक प्रतीक के तौर पर उभरा कि किसी सैनिक ने वीरगति प्राप्त की है, उसके जीवन का अंत हो गया है, उसने देश की सुरक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है।
विश्वयुद्ध के समय परंपरा बन गई लास्ट पोस्ट
19वीं शताब्दी की शुरुआत में लास्ट पोस्ट एक नए रूप में उभरा। कारण कि इसी दौरान ज्यादा युद्ध हुए। मसलन 1914 से 1918 तक प्रथम विश्वयुद्ध, 1939 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध। इस लिहाज से अकेले केवल इंग्लैंड में इस तरह के ट्रेंड बढ़े। इसी समय शहीदों को सूचीबद्ध किए जाने की भी शुरुआत हुई।
इस दौरान इतनी बड़ी संख्या में सैनिक शहीद हुए कि सभी के नाम स्मारक बनाना संभव नहीं था। ऐसे में उन्हें अंतिम विदाई देने को लास्ट पोस्ट की धुन बजाए जाने का ट्रेंड बहुत तेजी से उभरा।
चूंकि ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में शहीदों के स्मारक बनाने की परंपरा रही है, तो यह तय किया गया कि कम से कम उन्हें लास्ट पोस्ट बजाकर श्रद्धांजलि दी जाए। इस लिहाज से जो भी लोग अंतिम संस्कार में जाते थे, उनकी ओर से गुजारिश होती थी कि शहीद के लिए लास्ट पोस्ट बजाई जाए।
...और फिर अंतरराष्ट्रीय फलक पर छा गई यह धुन
यह भी एक परंपरा बन गई। जहां शहीदों का अंतिम संस्कार होता, जहां उन्हें दफनाया जाता या फिर जहां लोग उनके अंतिम दर्शन को पहुंचते, उन जगहों पर यह धुन बजाई जाने लगी। ऐसा भी होता था कि एक ही सैनिक को कई जगह लास्ट पोस्ट की धुन से सलामी, श्रद्धांजलि दी जाती थी। पहले जहां केवल सेना ही यह धुन सुनते थे, तो अब आम लोगों को भी यह धुन सुनाई देने लगा और उनकी भावनाएं जुड़ने लगी।
प्रथम विश्वयुद्ध तक यह बहुत लोकप्रिय हो गया तो दूसरे विश्वयुद्ध तक काफी तेजी से फैला और धीरे-धीरे लास्ट पोस्ट की यह धुन अंतरराष्ट्रीय फलक पर छा गई। अब भी यह परंपरा जारी है। जानना दिलचस्प है कि इस धुन में कहीं भी किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ। आज पूरे विश्व भर के देशों में शहादत के समय लास्ट पोस्ट की धुन बजाई जाती है।
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