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भाजपा ने छवि के मामले में बिहार के बेताज बादशाह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ऊपर 70 सीटें आने के बाद सवारी कर ली है। पहले उपमुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर सुशील कुमार मोदी को खारिज करके भाजपा ने नीतीश कुमार को संदेश दिया और अब दूसरा संदेश कार्यभार संभालने के कुछ घंटे के भीतर ही शिक्षा मंत्री मेवालाल के इस्तीफे के रूप में मिला है। नैतिकता को सिर पर ताज की तरह सजाकर रखने वाले सुशासन बाबू नीतीश के लिए यह पहला और बड़ा झटका है। राजनीति के पंडितों की निगाह भाजपा की शेर पर सवारी को लेकर टिकी है। उन्हें नहीं पता है कि यह शेर पीठ पर बिठाकर भाजपा को कितनी दूर लेकर जाएगा?
नीतीश कुमार के सिवा विकल्प क्या है?
जद(यू) महासचिव केसी त्यागी दिल्ली में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बड़े धाकड़ सिपाही हैं। चार दशक से अधिक समय की राजनीति की पाठशाला में केसी त्यागी ने अपने को बहुत मैच्योर बना लिया है, लेकिन बिहार सरकार के सामने अचानक खड़े हो गए यक्ष प्रश्न का उनके पास कोई सीधा जवाब नहीं है। केसी त्यागी सिर्फ इतना कहते हैं कि बिहार में अभी एक पार्टी के पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर राजनीति करने का समय नहीं आया है। उनके कहने का अर्थ साफ है कि अभी भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल दोनों को संभलकर बड़ा सपना देखना चाहिए। अमर उजाला के साथ बातचीत में केसी त्यागी कहते हैं कि आखिर नीतीश कुमार का बिहार में विकल्प क्या है? यह विकल्प किसके पास है?
इसे जद(यू) के नेता का नीतीश कुमार को लेकर दंभ भी कहा जा सकता है, लेकिन कहीं न कहीं त्यागी यहां सही दिखाई देते हैं। उनके तर्क भी बेबाक हैं। कहते हैं कि इतनी खराब स्थिति, जहां एनडीए से अलग हुआ सहयोगी दल लोजपा, सीधे मुखालफत पर भी उतरा था, पार्टी की 43 सीटें आई हैं। 16 प्रतिशत वोट मिले हैं। इसकी तुलना कोई चाहे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2015 में 22 जनसभाओं, मैराथन प्रयास और चुनाव बाद मिली 53 सीटों की सफलता से कर ले। कुछ ऐसी ही वजह थी कि भाजपा ने 70 सीटों पर जीत के बाद भी नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने पर हामी भरी। खुद नीतीश कुमार भी कह चुके हैं, उन्होंने यह पद भाजपा के आग्रह पर स्वीकार किया। वह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले तक झेंप भी रहे थे।
भाजपा भी नीतीश को बागी नहीं बनाना चाहती
भाजपा और संघ के नेताओं को एक बात मान लेने में बड़ा ऐतराज नहीं होता। वह आसानी से मान लेते हैं कि नीतीश कुमार की छवि राष्ट्रीय है। अर्थात नीतीश कुमार बिहार के राजनीति के खूंटे से छूटेंगे तो राष्ट्रीय राजनीति की तरफ रुख कर सकते हैं। ऐसा होने पर विपक्ष को प्रधानमंत्री के सामने खड़ा होने वाला एक चेहरा मिल सकता है। इसलिए भाजपा नीतीश कुमार के साथ तालमेल बनाए रखकर इस तरह का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा अपने साथ बनाए रखकर नीतीश कुमार का पूर्ण दोहन कर सकती है और वह बिहार में जद(यू) के नेताओं को ऐसा होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। नीतीश कुमार अपने धर्म निरपेक्ष चेहरे की पहचान से थोड़ा दूर भी हो रहे हैं। इस स्थिति को जद(यू) के रणनीतिकार भी भांप रहे हैं। एक तरह से उनकी स्थिति बिना दांत वाले मुंह जैसी हो गई है। इसलिए अब दबी जुबान से ही सही सबका मानना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह कार्यकाल भाजपा के राजनीतिक एजेंडे के दबाव में चलने वाला है। यहां पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन का भाजपा-जद(यू) जुड़वां भाई का तर्क राजनीतिक बेईमानी लगता है।
यही क्या कम है कि वह मुख्यमंत्री हैं? भाजपा का त्याग है
भाजपा के एक प्रवक्ता हैं। ऑन रिकार्ड कुछ नहीं बोलना चाहते। नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं कि भाजपा ने नीतीश कुमार के लिए बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी और सत्ता का त्याग किया है। भाजपा की 74और जद(यू) की 43 सीटें हैं। सूत्र का कहना है कि भाजपा के भरोसे ही बिहार की सत्ता एनडीए के पास आई है। हम राज्य सरकार के साथ सत्ता में साझीदार थे और इसके बाद भी जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया है। इस तरह के किसी एक तरफा तर्क और दावे पर जद(यू) महासचिव केसी त्यागी कुछ नहीं कहना चाहते। वह कहते हैं इसमें मेरे कह देने से क्या हो जाएगा। कोई हकीकत तो बदलेगी नहीं और जो कुछ सही है, उसे लोग जानते हैं।
तो क्या समय से पहले नीतीश छोड़ सकते हैं पद?
यह सवाल दिल्ली से लेकर पटना तक के राजनीतिक गलियारों में दौड़ रहा है। आने वाले समय और निर्णय के बारे में कोई नहीं जानता। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को हालांकि इस पर कोई यकीन नहीं है। नीतीश कुमार के बारे में उनकी राय है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को बहुत प्यारी है। वह इसका अवसर नहीं छोड़ने वाले। लोक जनशक्ति पार्टी के एक नेता का कहना है कि उन्होंने सबकुछ कह दिया है। अब कुछ और नहीं कहना है। इसके बाद वह इतना फिर कहते हैं कि जब मुख्यमंत्री पद ले लिया तो अब कौन सी नैतिकता बची है? कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता कहते हैं कि सत्ता और सरकार बड़ी चीज होती है। इससे आसानी से मोह नहीं छूटता।
सवाल फिर वहीं लौटकर आया है कि क्या नीतीश कुमार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेंगे? दरअसल, नीतीश कुमार राजनीति में साफ सुथरी छवि वाले नेता हैं। दाल में नमक के बराबर समझौता कर लेते हैं। उनका लक्ष्य भी अर्जुन की तरह चिड़िया की एक आंख पर रहता है। इस समय वह जद(यू) के सबसे बड़े नेता हैं। राजनीति और दांव-पेच के साथ दबाव की राजनीति करनी आती है। ऐसे में माना जा रहा है कि जब तक उनकी आंत में भाजपा के दांत की चुभन सहन होगी, वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे। असहनीय होने पर नया विकल्प तलाश लेंगे। इतिहास गवाह है कि इसकी मेधा उनके पास है।
सार
- जद(यू) के नेता हुए बिना दांत के, बस एक ही तर्क कि नीतीश का विकल्प नहीं
- इतनी खराब हालत में भी आए 16 फीसदी वोट, 43 सीटों पर हासिल की जीत
विस्तार
भाजपा ने छवि के मामले में बिहार के बेताज बादशाह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ऊपर 70 सीटें आने के बाद सवारी कर ली है। पहले उपमुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर सुशील कुमार मोदी को खारिज करके भाजपा ने नीतीश कुमार को संदेश दिया और अब दूसरा संदेश कार्यभार संभालने के कुछ घंटे के भीतर ही शिक्षा मंत्री मेवालाल के इस्तीफे के रूप में मिला है। नैतिकता को सिर पर ताज की तरह सजाकर रखने वाले सुशासन बाबू नीतीश के लिए यह पहला और बड़ा झटका है। राजनीति के पंडितों की निगाह भाजपा की शेर पर सवारी को लेकर टिकी है। उन्हें नहीं पता है कि यह शेर पीठ पर बिठाकर भाजपा को कितनी दूर लेकर जाएगा?
नीतीश कुमार के सिवा विकल्प क्या है?
जद(यू) महासचिव केसी त्यागी दिल्ली में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बड़े धाकड़ सिपाही हैं। चार दशक से अधिक समय की राजनीति की पाठशाला में केसी त्यागी ने अपने को बहुत मैच्योर बना लिया है, लेकिन बिहार सरकार के सामने अचानक खड़े हो गए यक्ष प्रश्न का उनके पास कोई सीधा जवाब नहीं है। केसी त्यागी सिर्फ इतना कहते हैं कि बिहार में अभी एक पार्टी के पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर राजनीति करने का समय नहीं आया है। उनके कहने का अर्थ साफ है कि अभी भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल दोनों को संभलकर बड़ा सपना देखना चाहिए। अमर उजाला के साथ बातचीत में केसी त्यागी कहते हैं कि आखिर नीतीश कुमार का बिहार में विकल्प क्या है? यह विकल्प किसके पास है?
इसे जद(यू) के नेता का नीतीश कुमार को लेकर दंभ भी कहा जा सकता है, लेकिन कहीं न कहीं त्यागी यहां सही दिखाई देते हैं। उनके तर्क भी बेबाक हैं। कहते हैं कि इतनी खराब स्थिति, जहां एनडीए से अलग हुआ सहयोगी दल लोजपा, सीधे मुखालफत पर भी उतरा था, पार्टी की 43 सीटें आई हैं। 16 प्रतिशत वोट मिले हैं। इसकी तुलना कोई चाहे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2015 में 22 जनसभाओं, मैराथन प्रयास और चुनाव बाद मिली 53 सीटों की सफलता से कर ले। कुछ ऐसी ही वजह थी कि भाजपा ने 70 सीटों पर जीत के बाद भी नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने पर हामी भरी। खुद नीतीश कुमार भी कह चुके हैं, उन्होंने यह पद भाजपा के आग्रह पर स्वीकार किया। वह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले तक झेंप भी रहे थे।
भाजपा भी नीतीश को बागी नहीं बनाना चाहती
भाजपा और संघ के नेताओं को एक बात मान लेने में बड़ा ऐतराज नहीं होता। वह आसानी से मान लेते हैं कि नीतीश कुमार की छवि राष्ट्रीय है। अर्थात नीतीश कुमार बिहार के राजनीति के खूंटे से छूटेंगे तो राष्ट्रीय राजनीति की तरफ रुख कर सकते हैं। ऐसा होने पर विपक्ष को प्रधानमंत्री के सामने खड़ा होने वाला एक चेहरा मिल सकता है। इसलिए भाजपा नीतीश कुमार के साथ तालमेल बनाए रखकर इस तरह का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा अपने साथ बनाए रखकर नीतीश कुमार का पूर्ण दोहन कर सकती है और वह बिहार में जद(यू) के नेताओं को ऐसा होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। नीतीश कुमार अपने धर्म निरपेक्ष चेहरे की पहचान से थोड़ा दूर भी हो रहे हैं। इस स्थिति को जद(यू) के रणनीतिकार भी भांप रहे हैं। एक तरह से उनकी स्थिति बिना दांत वाले मुंह जैसी हो गई है। इसलिए अब दबी जुबान से ही सही सबका मानना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह कार्यकाल भाजपा के राजनीतिक एजेंडे के दबाव में चलने वाला है। यहां पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन का भाजपा-जद(यू) जुड़वां भाई का तर्क राजनीतिक बेईमानी लगता है।
यही क्या कम है कि वह मुख्यमंत्री हैं? भाजपा का त्याग है
भाजपा के एक प्रवक्ता हैं। ऑन रिकार्ड कुछ नहीं बोलना चाहते। नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं कि भाजपा ने नीतीश कुमार के लिए बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी और सत्ता का त्याग किया है। भाजपा की 74और जद(यू) की 43 सीटें हैं। सूत्र का कहना है कि भाजपा के भरोसे ही बिहार की सत्ता एनडीए के पास आई है। हम राज्य सरकार के साथ सत्ता में साझीदार थे और इसके बाद भी जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया है। इस तरह के किसी एक तरफा तर्क और दावे पर जद(यू) महासचिव केसी त्यागी कुछ नहीं कहना चाहते। वह कहते हैं इसमें मेरे कह देने से क्या हो जाएगा। कोई हकीकत तो बदलेगी नहीं और जो कुछ सही है, उसे लोग जानते हैं।
तो क्या समय से पहले नीतीश छोड़ सकते हैं पद?
यह सवाल दिल्ली से लेकर पटना तक के राजनीतिक गलियारों में दौड़ रहा है। आने वाले समय और निर्णय के बारे में कोई नहीं जानता। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को हालांकि इस पर कोई यकीन नहीं है। नीतीश कुमार के बारे में उनकी राय है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को बहुत प्यारी है। वह इसका अवसर नहीं छोड़ने वाले। लोक जनशक्ति पार्टी के एक नेता का कहना है कि उन्होंने सबकुछ कह दिया है। अब कुछ और नहीं कहना है। इसके बाद वह इतना फिर कहते हैं कि जब मुख्यमंत्री पद ले लिया तो अब कौन सी नैतिकता बची है? कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता कहते हैं कि सत्ता और सरकार बड़ी चीज होती है। इससे आसानी से मोह नहीं छूटता।
सवाल फिर वहीं लौटकर आया है कि क्या नीतीश कुमार पांच साल का कार्यकाल पूरा करेंगे? दरअसल, नीतीश कुमार राजनीति में साफ सुथरी छवि वाले नेता हैं। दाल में नमक के बराबर समझौता कर लेते हैं। उनका लक्ष्य भी अर्जुन की तरह चिड़िया की एक आंख पर रहता है। इस समय वह जद(यू) के सबसे बड़े नेता हैं। राजनीति और दांव-पेच के साथ दबाव की राजनीति करनी आती है। ऐसे में माना जा रहा है कि जब तक उनकी आंत में भाजपा के दांत की चुभन सहन होगी, वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे। असहनीय होने पर नया विकल्प तलाश लेंगे। इतिहास गवाह है कि इसकी मेधा उनके पास है।