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मैं एक डेंटल टेक्नीशियन के तौर पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में काम करता था। वहां मेरे एक साथी हुआ करते थे। उन्हीं की टीम में हमने करीब बीस साल पूरे देश में घूम-घूमकर मुंह के कैंसर पर शोध किया। शोध में हमने पाया कि मुंह के कैंसर से जूझ रहे सौ लोगों में अस्सी लोग तंबाकू सेवन की सजा भुगत रहे हैं। मुझे उनकी हालत देखकर तरस आती। कैंसर का हर एक मरीज मेरे मन में तंबाकू के प्रति घृणा को और पुख्ता करता। इससे दुखद और क्या हो सकता था कि मेरी पत्नी की मौत भी कैंसर की वजह से हुई थी।करीब आठ साल पहले मैं सेवानिवृत्त हुआ। रिटायरमेंट के बाद अक्सर लोगों की कई योजनाएं होती हैं।
कुछ लोग दुनिया देखना चाहते हैं, तो कुछ लोग अपने दूसरे तरह के शौक पूरे करना चाहते हैं। मेरी भी एक इच्छा थी कि मैं रिटायरमेंट के बाद एक काम करूं। वह काम था, रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर लोगों को तंबाकू के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करना। मैंने कोई नया काम करने की नहीं सोची। मैं तो बस वही बातें लोगों को बताना चाहता था, जिनका अभ्यास मैं खुद करता था। इस काम में मेरे दोनों बच्चों समेत मेरी पत्नी ने बखूबी साथ दिया। उसने मुझे सलाह दी कि लोगों को जागरूक करना, समझाना तो ठीक है, मगर अपने काम से मुझे किसी को परेशान नहीं करना चाहिए। चुपचाप खड़े होकर संदेश देना ज्यादा बेहतर होगा, बजाय किसी को रोक-टोककर उसका वक्त जाया करने से।
अपनी पत्नी की सलाह मानते हुए मैं पिछले आठ साल से हर रोज सुबह साढ़े बजे तक कांदिवली रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाता हूं। शाम को घर वापस लौटने से पहले मैं वहां पूरा दिन शरीर ढक सकने वाला बैनर गले में लटकाकर खड़ा रहता हूं, जिस पर तंबाकू सेवन के दुष्परिणाम समेत अंग दान और पर्यावरण बचाने के संदेश लिखे होते हैं। मैं किसी से भी एक शब्द नहीं बोलता और चुपचाप बैनर पर लिखे संदेशों को प्रत्येक दिन हजारों लोगों तक पहुंचाता हूं।
इस काम के लिए मैंने रेलवे स्टेशन को चुना ही इसलिए है, क्योंकि मुंबई जैसे शहर में कम से कम समय में अधिकतम लोगों तक पहुंचने का इससे बेहतर जरिया नहीं हो सकता। हाल ही में मैंने एक मराठी अखबार में ध्वनि प्रदूषण से संबंधित एक लेख पढ़ा। उसे पढ़ने के बाद मैंने इस तरह के प्रदूषण के विरुद्ध भी संदेश प्रचारित करना शुरू कर दिया।
फिर चाहे वह किसी धार्मिक उत्सव का गाना-बजाना हो या फिर शादियों में होने वाला धूम-धड़ाका। किसी न किसी बहाने हम अक्सर ध्वनि प्रदूषण से दो-चार होते रहते हैं। मैं लोगों को यही बताता हूं कि हम यदि ऐसे ही शोरगुल मचाते रहेंगे, तो हमें इसके कितने गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। मेरे जैसे कितने ही रिटायर्ड लोग हैं, जो समाज के लिए अब भी कुछ करना चाहते हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे लोगों को ध्वनि स्तर मापने वाली मशीनें दे दें। सरकार के लिए ऐसे लोग काफी काम आ सकते हैं।
हम सभी को सिर्फ अपनी फिक्र नहीं करनी चाहिए। लोगों को सोचना चाहिए कि वे लोग जैसे अपने घर में कहीं भी कूड़ा नहीं फेंकते या किसी भी जगह नहीं थूकते, उनकी ऐसी ही आदतें घर से बाहर भी होनी चाहिए। यदि हम दूसरों की चिंता नहीं करेंगे, तो दूसरे हमारी चिंता नहीं करेंगे। हमें एक-दूसरे का मददगार बनकर बेहतर समाज बनाना होगा।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।
मैं एक डेंटल टेक्नीशियन के तौर पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में काम करता था। वहां मेरे एक साथी हुआ करते थे। उन्हीं की टीम में हमने करीब बीस साल पूरे देश में घूम-घूमकर मुंह के कैंसर पर शोध किया। शोध में हमने पाया कि मुंह के कैंसर से जूझ रहे सौ लोगों में अस्सी लोग तंबाकू सेवन की सजा भुगत रहे हैं। मुझे उनकी हालत देखकर तरस आती। कैंसर का हर एक मरीज मेरे मन में तंबाकू के प्रति घृणा को और पुख्ता करता। इससे दुखद और क्या हो सकता था कि मेरी पत्नी की मौत भी कैंसर की वजह से हुई थी।करीब आठ साल पहले मैं सेवानिवृत्त हुआ। रिटायरमेंट के बाद अक्सर लोगों की कई योजनाएं होती हैं।
कुछ लोग दुनिया देखना चाहते हैं, तो कुछ लोग अपने दूसरे तरह के शौक पूरे करना चाहते हैं। मेरी भी एक इच्छा थी कि मैं रिटायरमेंट के बाद एक काम करूं। वह काम था, रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर लोगों को तंबाकू के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करना। मैंने कोई नया काम करने की नहीं सोची। मैं तो बस वही बातें लोगों को बताना चाहता था, जिनका अभ्यास मैं खुद करता था। इस काम में मेरे दोनों बच्चों समेत मेरी पत्नी ने बखूबी साथ दिया। उसने मुझे सलाह दी कि लोगों को जागरूक करना, समझाना तो ठीक है, मगर अपने काम से मुझे किसी को परेशान नहीं करना चाहिए। चुपचाप खड़े होकर संदेश देना ज्यादा बेहतर होगा, बजाय किसी को रोक-टोककर उसका वक्त जाया करने से।
अपनी पत्नी की सलाह मानते हुए मैं पिछले आठ साल से हर रोज सुबह साढ़े बजे तक कांदिवली रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाता हूं। शाम को घर वापस लौटने से पहले मैं वहां पूरा दिन शरीर ढक सकने वाला बैनर गले में लटकाकर खड़ा रहता हूं, जिस पर तंबाकू सेवन के दुष्परिणाम समेत अंग दान और पर्यावरण बचाने के संदेश लिखे होते हैं। मैं किसी से भी एक शब्द नहीं बोलता और चुपचाप बैनर पर लिखे संदेशों को प्रत्येक दिन हजारों लोगों तक पहुंचाता हूं।
इस काम के लिए मैंने रेलवे स्टेशन को चुना ही इसलिए है, क्योंकि मुंबई जैसे शहर में कम से कम समय में अधिकतम लोगों तक पहुंचने का इससे बेहतर जरिया नहीं हो सकता। हाल ही में मैंने एक मराठी अखबार में ध्वनि प्रदूषण से संबंधित एक लेख पढ़ा। उसे पढ़ने के बाद मैंने इस तरह के प्रदूषण के विरुद्ध भी संदेश प्रचारित करना शुरू कर दिया।
फिर चाहे वह किसी धार्मिक उत्सव का गाना-बजाना हो या फिर शादियों में होने वाला धूम-धड़ाका। किसी न किसी बहाने हम अक्सर ध्वनि प्रदूषण से दो-चार होते रहते हैं। मैं लोगों को यही बताता हूं कि हम यदि ऐसे ही शोरगुल मचाते रहेंगे, तो हमें इसके कितने गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। मेरे जैसे कितने ही रिटायर्ड लोग हैं, जो समाज के लिए अब भी कुछ करना चाहते हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे लोगों को ध्वनि स्तर मापने वाली मशीनें दे दें। सरकार के लिए ऐसे लोग काफी काम आ सकते हैं।
हम सभी को सिर्फ अपनी फिक्र नहीं करनी चाहिए। लोगों को सोचना चाहिए कि वे लोग जैसे अपने घर में कहीं भी कूड़ा नहीं फेंकते या किसी भी जगह नहीं थूकते, उनकी ऐसी ही आदतें घर से बाहर भी होनी चाहिए। यदि हम दूसरों की चिंता नहीं करेंगे, तो दूसरे हमारी चिंता नहीं करेंगे। हमें एक-दूसरे का मददगार बनकर बेहतर समाज बनाना होगा।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।