कुंभ के दौरान श्रद्धालुओं को नागा संन्यासियों के दर्शन होते हैं। श्रद्धालु दिगंबर और श्री दिंगबर नागाओं के दर्शन के लिए वर्षों कुंभ का इंतजार करते हैं। नागा साधु का जीवन आम लोगों से 100 गुना कठिन होता है। नागा दीक्षा के लिए संन्यासियों को कठिन परीक्षा देनी पड़ती है। अंतिम प्रण देने के बाद कुंभ में दीक्षा के बाद संन्यासी लंगोट त्याग देते हैं। नागाओं को नागा, खूनी नागा, बर्फानी नागा और खिचड़िया नागा की उपाधि दी जाती है। इससे ये पता चलता है कि उनको किस कुंभनगरी में नागा दीक्षा दी गई है। कुंभ के दौरान ही श्रद्धालुओं को नागा संन्यासियों के दर्शन होते हैं। इसके बाद नागा संन्यासी कठोर तप के लिए दुर्गम क्षेत्रों में लौट जाते हैं। कुंभनगरी हरिद्वार में पेशवाई के दौरान नागा संन्यासियों को देखने आस्था का सैलाब सड़कों पर उमड़ रहा है। पंचायती अखाड़ा श्री निरंजनी के सचिव श्रीमंहत रविंद्र पुरी ने बताया कि सबसे पहले वेद व्यास ने वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दशनामी संप्रदाय का गठन किया। इसके बाद अखाड़ों की परंपरा की शुरूआत हुई। श्रीमहंत रविंद्र पुरी ने बताया कि नागा साधु बनने में 12 वर्ष का समय लग जाता है। नागा पंथ की नियमों को सीखने में ही पूरा छह साल का समय लग जाता है। इस दौरान ब्रह्मचारी एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते।