रुचि नारायण की इससे पहले आई फिल्म ‘गिल्टी’ तो बहुत ही सामयिक बन पड़ी, क्या कहेंगे?
मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही हिम्मतभरा प्रयास रहा। स्त्री सशक्तीकरण की जो वह बात करती हैं, उसे आकर अब खुले में बोलना पड़ेगा। कानून कोशिश कर रहा है लेकिन कानून की अपनी दिक्कतें हैं। जो न्याय मिलना है, वो मिल ही रहा है ऐसा नहीं है। निर्भया मामले में कानून ने जो किया वह एक महान उदाहरण है। पुरुष प्रधान संस्कृति में क्रूरता बहुत है। लोग ये भी बोलेंगे कि स्त्री भी तो क्रूर होती है लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है। इसका कोई अर्थ नहीं है। हम पुरुष प्रधान संस्कृति में मानकर चलते हैं कि स्त्री गौण है। निर्बल है। दुबली है। ‘हंड्रेड’ में एक ऐसी पुलिस अफसर दिखती है जो महिला होने के चलते खाकी पहनकर भी कुछ नहीं कर सकती।
महिला सशक्तीकरण का जिक्र चला तो मुझे आपका फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का किरदार बाबा याद आता है, जो कहानी में आता ही है लड़कियों को छेड़ने…
(जोर से हंसते हुए..) हमारी जो पुरानी फिल्में रही हैं उनमें जब तक हीरोइन को छेड़ा न जाए तब तक हीरो नहीं बनता। पहले के जमाने में क्या होता था कि इंटरवल के पहले एक विलेन चाहिए होता था फिर इंटरवल के बाद दूसरा बड़ा विलेन चाहिए होता था। तो हम वो इंटरवल के पहले वाले छोटे विलेन थे। लेकिन, ये सब करने में घिन भी बहुत आती है। ‘अंत’ नाम की एक फिल्म थी सुनील शेट्टी की। उसमें मैं एक नेता का बेटा हूं। मेरे लिए तो बड़ा मुश्किल होता था वो रेप सीन करना। फिर मैं सोचने लगा कि यार ये मैं क्या कर रहा हूं, मैं कौन हूं और क्यों ये करवाया जा रहा है मुझसे। फिर मुझे खुद ही इसका उत्तर मिला और इसी के चलते मैंने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। सब वही करवाना चाहते थे और उस पर तुर्रा ये कि इसको अच्छे से कर दो। भई, इसमें अच्छा क्या होता
मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही हिम्मतभरा प्रयास रहा। स्त्री सशक्तीकरण की जो वह बात करती हैं, उसे आकर अब खुले में बोलना पड़ेगा। कानून कोशिश कर रहा है लेकिन कानून की अपनी दिक्कतें हैं। जो न्याय मिलना है, वो मिल ही रहा है ऐसा नहीं है। निर्भया मामले में कानून ने जो किया वह एक महान उदाहरण है। पुरुष प्रधान संस्कृति में क्रूरता बहुत है। लोग ये भी बोलेंगे कि स्त्री भी तो क्रूर होती है लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है। इसका कोई अर्थ नहीं है। हम पुरुष प्रधान संस्कृति में मानकर चलते हैं कि स्त्री गौण है। निर्बल है। दुबली है। ‘हंड्रेड’ में एक ऐसी पुलिस अफसर दिखती है जो महिला होने के चलते खाकी पहनकर भी कुछ नहीं कर सकती।
महिला सशक्तीकरण का जिक्र चला तो मुझे आपका फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का किरदार बाबा याद आता है, जो कहानी में आता ही है लड़कियों को छेड़ने…
(जोर से हंसते हुए..) हमारी जो पुरानी फिल्में रही हैं उनमें जब तक हीरोइन को छेड़ा न जाए तब तक हीरो नहीं बनता। पहले के जमाने में क्या होता था कि इंटरवल के पहले एक विलेन चाहिए होता था फिर इंटरवल के बाद दूसरा बड़ा विलेन चाहिए होता था। तो हम वो इंटरवल के पहले वाले छोटे विलेन थे। लेकिन, ये सब करने में घिन भी बहुत आती है। ‘अंत’ नाम की एक फिल्म थी सुनील शेट्टी की। उसमें मैं एक नेता का बेटा हूं। मेरे लिए तो बड़ा मुश्किल होता था वो रेप सीन करना। फिर मैं सोचने लगा कि यार ये मैं क्या कर रहा हूं, मैं कौन हूं और क्यों ये करवाया जा रहा है मुझसे। फिर मुझे खुद ही इसका उत्तर मिला और इसी के चलते मैंने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। सब वही करवाना चाहते थे और उस पर तुर्रा ये कि इसको अच्छे से कर दो। भई, इसमें अच्छा क्या होता