मुंबई। समय को अपने हिसाब से हांकने वाले उद्दंड सारथियों के रथ को अपने जीवट और अपनी सहज सरल अभिव्यक्तियों से थामने की निरंतर कोशिश में लगे रहे गिरीश कर्नाड को साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में एक नए प्रवाह की गंगोत्री के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। गोमुख बनने की उन्होंने न कभी कोशिश की, न ही उनके मन में कभी इस बात की चेष्टा ही रही कि उन्हें अग्रदूत के रूप में इतिहास याद रखे। वह जिस समय में जहां जिए, वहीं रोशनाई के तेल से विरोध का दीया जलाए रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार और अमर उजाला के आकाशदीप सम्मान भी उनकी इसी लौ से रौशन हुए।
कर्नाड के लेखन में कुचीपुड़ी की लय मिलती है। संस्कृत सी शुद्धता दिखती है और कर्नाटक संगीत का वह उनवान दिखता है जिसे समझने के लिए उस दौर में जाना जरूरी है जब गिरीश किशोरवय के रहे। ऑक्सफोर्ड यूनियन के अध्यक्ष और रोड्स अध्येता गिरीश कर्नाड ने साहित्य के उस सूत्र को अंत तक थामे रखा जिसे सत्ता के विरोध से संबल मिलता है। गौरी लंकेश की बरसी पर गले में ‘मैं भी अर्बन नक्सल’ की तख्ती लगाने पर आपराधिक कार्यवाही सहन करने वाले गिरीश कर्नाड सिनेमा के परदे पर जो जीते रहे, उसे अपने जीवन में भी कहीं न कहीं परिलक्षित जरूर करते रहे। या यों कहें कि जो वह जीते रहे, उसे सिनेमा में उतारते रहे।
कर्नाटक के कालखंड में टीपू सुल्तान की चमक लगातार मांजने वाले गिरीश कर्नाड परंपराओं के वाहक तो रहे लेकिन सम सामयिक विचारों का द्वंद्व भी उनके नाटकों में दिखता है। अपने नाटक ययाति में जब वह पारिवारिक अपेक्षाओं और विस्तारित समाज की आकांक्षाओं से जूझता नायक रचते हैं तो वह समय को लिखते हैं। तुगलक में वह एक ऐसे इतिहास को धोबीघाट के पत्थर पर पटकते हैं जिसे इतिहासकारों ने सत्ता की रुचियों के हिसाब से लिखा और गढ़ा। उनका तुगलक तानाशाह नहीं है। वह नूतन का ऐसा सर्जक है जिसकी बनाई लीक पर भारत में आजादी का लोकतंत्र आगे बढ़ा। बादल सरकार के एवम इंद्रजीत के अनुवाद के साथ उन्होंने रंगमंच की प्रगतिशील धारा को बहाव दिया।
बी वी कारंथ और यू आर कृष्णमूर्ति के साथ रहकर भी अपने विचारों की स्वतंत्रता बनाए रखने वाले गिरीश कर्नाड ने भाषाओं के बंधन को हमेशा नकारा ही। कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मलयालम के अलावा हिंदी और मराठी सिनेमा में भी उन्होंने उत्कृष्ट अभिनय किया। गिरीश महाराष्ट्र के उस माथेरान में जन्मे जहां आज भी मोटरगाड़ी से पहुंचना नामुमकिन है। घुट्टी में मिली विकास की ये विडंबनाएं उनके अभिनय में प्रतिबिंबित होती हैं। श्वेत क्रांति पर बनी फिल्म मंथन के डॉक्टर का किरदार हो या फिर निशांत में आसपास की कुरीतियों से जूझता नायक, श्याम बेनेगल को गिरीश कर्नाड में ही अपना नायक दिखा।
यह भी समय की विडंबना है कि गिरीश कर्नाड जैसे रंगकर्मी, साहित्यकार व समाजसेवी के निधन के समाचार को सलमान खान की टाइगर जिंदा है से उनकी संबंद्धता को जोड़कर न्यूज चैनलों ने फ्लैश किया। अपने समय के मनीषियों को नापने की संचार माध्यमों की यह अलग विवशता है। 1974 में पद्मश्री, 1992 में पद्मभूषण, 1999 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2018 में अमर उजाला का आकाशदीप सम्मान पाने वाले साहित्यकर्मी गिरीश कर्नाड समय की इन विवशताओं से अंतिम समय तक दो दो हाथ करते रहे। पिछला वसंत उनके जीवन का 81वां वसंत रहा और 10 जून को मेघदूत के कर्नाटक आने से पहले ही वह हम सबसे विदा हो गए।