लाइफस्टाइल डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Updated Thu, 29 Oct 2020 12:00 AM IST
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भारत सरकार का नारा 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' कैसे पूरा होगा? जब भारतीय समाज का ही एक सच ये सामने आए कि लगभग 67 फीसदी नवजात बच्चियां कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं। वैसे तो किसी समाज में बच्चे का यूं फेंका जाना काफी शर्मनाक है। उसपर अगर ये आंकड़ा भी लड़का और लड़की में भेद दिखाए तो? आंकड़े की माने तो हर साल नवजात शिशुओं को फेंके जाने की संख्या बढ़ती ही जा रही है। सबसे खास बात कि इन्हें किसी अनाथाश्रम में भी नहीं छोड़ा जाता। बल्कि सड़क के किनारे या फिर झाड़ियों में मरने के लिए फेंक दिया जाता है।
इन फेंके गए शिशुओं में बेटियों की संख्या 67 फीसदी समाज के क्रूर, असंवेदनशील और भेदभावपूर्ण बताने के लिए काफी है। आंकड़ों पर गौर करें तो 2007 से लेकर 2020 से वर्षों में बच्चों के फेंके जाने की संख्या में बढोतरी हुई है। साल 2008 में कुल नवजात शिशुओं को जिन्हें फेंक दिया गया उनमें से 17 बच्चियां थीं। वहीं 2020 की अवधि में कुल 7 बच्चे फेंके गए जिनमें 6 लड़कियां थीं। ये आंकड़े मात्र एक शहर के हैं। जिनसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूरे राज्य में कितनी बच्चियां लावारिस हालत में फेंक दी जाती होंगी।
हालांकि इस मामले में बड़े राज्य बाल अधिकार आयोग के अध्यक्ष का कहना है कि सरकार अपने स्तर पर काम कर रही है। अब एनजीओ को आगे आना होगा और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। इसके अलावा दत्तक ग्रहण के नियमों को शिथिल करना होगा, ताकि बेटियों को गोद लेने वाले आगे आ सकें।
वहीं समाजशास्त्री लोगों का कहना है कि इस तरह के भेदभाव में समाज की अहम भूमिका होती है। इस समय में भी लोग बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव कर रहे हैं। बेटियों का फेंका जाना ये बताने के लिए काफी है कि आज भी लोग खुले दिल से बेटियों को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। कम से कम फेंकी गई बेटियों की संख्या तो इसी ओर इशारा कर रही है।
भारत सरकार का नारा 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' कैसे पूरा होगा? जब भारतीय समाज का ही एक सच ये सामने आए कि लगभग 67 फीसदी नवजात बच्चियां कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं। वैसे तो किसी समाज में बच्चे का यूं फेंका जाना काफी शर्मनाक है। उसपर अगर ये आंकड़ा भी लड़का और लड़की में भेद दिखाए तो? आंकड़े की माने तो हर साल नवजात शिशुओं को फेंके जाने की संख्या बढ़ती ही जा रही है। सबसे खास बात कि इन्हें किसी अनाथाश्रम में भी नहीं छोड़ा जाता। बल्कि सड़क के किनारे या फिर झाड़ियों में मरने के लिए फेंक दिया जाता है।
नवजात शिशु
- फोटो : social media
इन फेंके गए शिशुओं में बेटियों की संख्या 67 फीसदी समाज के क्रूर, असंवेदनशील और भेदभावपूर्ण बताने के लिए काफी है। आंकड़ों पर गौर करें तो 2007 से लेकर 2020 से वर्षों में बच्चों के फेंके जाने की संख्या में बढोतरी हुई है। साल 2008 में कुल नवजात शिशुओं को जिन्हें फेंक दिया गया उनमें से 17 बच्चियां थीं। वहीं 2020 की अवधि में कुल 7 बच्चे फेंके गए जिनमें 6 लड़कियां थीं। ये आंकड़े मात्र एक शहर के हैं। जिनसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूरे राज्य में कितनी बच्चियां लावारिस हालत में फेंक दी जाती होंगी।
हालांकि इस मामले में बड़े राज्य बाल अधिकार आयोग के अध्यक्ष का कहना है कि सरकार अपने स्तर पर काम कर रही है। अब एनजीओ को आगे आना होगा और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। इसके अलावा दत्तक ग्रहण के नियमों को शिथिल करना होगा, ताकि बेटियों को गोद लेने वाले आगे आ सकें।
वहीं समाजशास्त्री लोगों का कहना है कि इस तरह के भेदभाव में समाज की अहम भूमिका होती है। इस समय में भी लोग बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव कर रहे हैं। बेटियों का फेंका जाना ये बताने के लिए काफी है कि आज भी लोग खुले दिल से बेटियों को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। कम से कम फेंकी गई बेटियों की संख्या तो इसी ओर इशारा कर रही है।