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डॉ रखमाबाई राउत संभवत: भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। लेकिन डॉक्टर होने से कहीं ज्यादा वो भारत की शुरुआती नारीवादियों में से एक थीं। सिर्फ 22 साल की उम्र में उन्होंने अपने तलाक के लिए कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ी। उस जमाने में पुरुषों का अपनी पत्नियों को छोड़ देना या फिर तलाक दे देना, आम बात थी। लेकिन शायद रखमाबाई वो पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने अपने पति से तलाक की मांग की। रखमाबाई के इस कदम ने उस वक्त के रुढ़िवादी समाज को पूरी तरह हिलाकर रख दिया।
रखमाबाई राउत का जन्म मुंबई (तत्कालिक बॉम्बे) में साल 1864 में हुआ था। उनकी विधवा मां ने महज़ ग्यारह वर्ष की उम्र में उनकी शादी करवा दी थी। लेकिन रखमाबाई कभी बी अपने पति के साथ रहने के लिए नहीं गईं और हमेशा अपनी मां के साथ ही रहीं। साल 1887 में उनके पति दादाजी भीकाजी ने संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए कोर्ट में याचिका दायर की। अपने बचाव में रखमाबाई ने कहा कि कोई भी उन्हें इस शादी के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता है क्योंकि उन्होंने कभी भी इस शादी के लिए सहमति नहीं दी और जिस समय उनकी शादी हुई वो बहुत छोटी थीं। इस कोर्ट केस के परिणामस्वरूप विवाह की पुष्टि हुई। कोर्ट ने उन्हें दो विकल्प दिये। पहला, या तो वो अपने पति के पास चली जाएं या फिर छह महीने के लिए जेल जाएं।
रखमाबाई ने जबरदस्ती की शादी में रहने से बेहतर जेल जाना समझा। वो जेल जाने के लिए तैयार हो गईं। उनका यह फैसला उस समय के लिहाज़ से एक ऐतिहासिक और बेहद साहसिक कदम था। इस मामले ने काफी तूल पकड़ा और उनकी काफी आलोचना भी हुई। यहां तक कि स्वतंत्रता सेनानी बालगंगाधर तिलक ने भी अपने अखबार में उनके खिलाफ लिखा। उन्होंने रखमाबाई के इस कदम को हिंदू परंपराओं पर एक धब्बे के रूप में परिभाषित किया।
उन्होंने यह भी लिखा कि रखमाबाई जैसी महिलाओं के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा चोर, व्यभिचारी और हत्या के आरोपियों के साथ किया जाता है। बावजूद इन आलोचनाओं और निंदा के रखमाबाई अपने फैसले पर कायम रहीं और वापस लौटकर नहीं आईं।
अपने सौतेले पिता सखाराम अर्जुन के समर्थन से उन्होंने अपने तलाक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी। अदालत ने उनके पक्ष में फैसला नहीं दिया बावजूद इसके उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी। अपनी शादी को खत्म करने के लिए उन्होंने रानी विक्टोरिया को एक पत्र भी लिखा। रानी ने अदालत के फैसले को पलट दिया। अंत में उनके पति ने मुकदमा वापस ले लिया और रुपये के बदले ये मामला कोर्ट के बाहर ही निपटा लिया।
इस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बाद क्या कुछ बदला?
रखमाबाई के इस केस ने भारत में 'एज ऑफ कंसेंट एक्ट 1891' के पारित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कानून से भारत में सभी लड़कियों (विवाहित और अविवाहित) से यौन संबंध स्थापित करने में सहमति लिए जाने की उम्र को 10 साल से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई थी।
भले ही आज यह बहुत बड़ा बदलाव समझ नहीं आता हो लेकिन इस अधिनियम ने ही पहली बार यह तय किया कि कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाने वाले को सज़ा हो सकती है, भले ही वह विवाहित हो। इसके उल्लंघन को बलात्कार की श्रेणी में रखा गया।
शादी खत्म होने के तुरंत बाद रखमाबाई ने 1889 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसीन फॉर वीमेन में दाखिला लिया। उन्होंने 1894 में स्नातक पूरा किया लेकिन वो आगे एमडी करना चाहती थीं। लंदन स्कूल ऑफ मेडिसीन उस समय तक महिलाओं को एमडी नहीं करवाता था। उन्होंने मेडिकल स्कूल के इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। इसके बाद उन्होंने ब्रसेल्स से अपनी एमडी पूरी की।
रखमाबाई भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनीं। हालांकि पति से अलग होने के उनके फैसले के कारण बहुत से लोगों से उन्हें आलोचना सुनने को मिली लेकिन वो रुकी नहीं।
रखमाबाई ने शुरू में मुंबई के कामा अस्पताल में काम किया लेकिन बाद में वो सूरत चली गईं। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए समर्पित कर दिया और 35 सालों तक प्रैक्टिस की। उन्होंने कभी दोबारा शादी नहीं की
डॉ रखमाबाई राउत संभवत: भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। लेकिन डॉक्टर होने से कहीं ज्यादा वो भारत की शुरुआती नारीवादियों में से एक थीं। सिर्फ 22 साल की उम्र में उन्होंने अपने तलाक के लिए कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ी। उस जमाने में पुरुषों का अपनी पत्नियों को छोड़ देना या फिर तलाक दे देना, आम बात थी। लेकिन शायद रखमाबाई वो पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने अपने पति से तलाक की मांग की। रखमाबाई के इस कदम ने उस वक्त के रुढ़िवादी समाज को पूरी तरह हिलाकर रख दिया।
रखमाबाई राउत का जन्म मुंबई (तत्कालिक बॉम्बे) में साल 1864 में हुआ था। उनकी विधवा मां ने महज़ ग्यारह वर्ष की उम्र में उनकी शादी करवा दी थी। लेकिन रखमाबाई कभी बी अपने पति के साथ रहने के लिए नहीं गईं और हमेशा अपनी मां के साथ ही रहीं। साल 1887 में उनके पति दादाजी भीकाजी ने संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए कोर्ट में याचिका दायर की। अपने बचाव में रखमाबाई ने कहा कि कोई भी उन्हें इस शादी के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता है क्योंकि उन्होंने कभी भी इस शादी के लिए सहमति नहीं दी और जिस समय उनकी शादी हुई वो बहुत छोटी थीं। इस कोर्ट केस के परिणामस्वरूप विवाह की पुष्टि हुई। कोर्ट ने उन्हें दो विकल्प दिये। पहला, या तो वो अपने पति के पास चली जाएं या फिर छह महीने के लिए जेल जाएं।
रखमाबाई ने जबरदस्ती की शादी में रहने से बेहतर जेल जाना समझा। वो जेल जाने के लिए तैयार हो गईं। उनका यह फैसला उस समय के लिहाज़ से एक ऐतिहासिक और बेहद साहसिक कदम था। इस मामले ने काफी तूल पकड़ा और उनकी काफी आलोचना भी हुई। यहां तक कि स्वतंत्रता सेनानी बालगंगाधर तिलक ने भी अपने अखबार में उनके खिलाफ लिखा। उन्होंने रखमाबाई के इस कदम को हिंदू परंपराओं पर एक धब्बे के रूप में परिभाषित किया।
उन्होंने यह भी लिखा कि रखमाबाई जैसी महिलाओं के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा चोर, व्यभिचारी और हत्या के आरोपियों के साथ किया जाता है। बावजूद इन आलोचनाओं और निंदा के रखमाबाई अपने फैसले पर कायम रहीं और वापस लौटकर नहीं आईं।
अपने सौतेले पिता सखाराम अर्जुन के समर्थन से उन्होंने अपने तलाक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी। अदालत ने उनके पक्ष में फैसला नहीं दिया बावजूद इसके उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी। अपनी शादी को खत्म करने के लिए उन्होंने रानी विक्टोरिया को एक पत्र भी लिखा। रानी ने अदालत के फैसले को पलट दिया। अंत में उनके पति ने मुकदमा वापस ले लिया और रुपये के बदले ये मामला कोर्ट के बाहर ही निपटा लिया।
इस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बाद क्या कुछ बदला?
रखमाबाई के इस केस ने भारत में 'एज ऑफ कंसेंट एक्ट 1891' के पारित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कानून से भारत में सभी लड़कियों (विवाहित और अविवाहित) से यौन संबंध स्थापित करने में सहमति लिए जाने की उम्र को 10 साल से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई थी।
भले ही आज यह बहुत बड़ा बदलाव समझ नहीं आता हो लेकिन इस अधिनियम ने ही पहली बार यह तय किया कि कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाने वाले को सज़ा हो सकती है, भले ही वह विवाहित हो। इसके उल्लंघन को बलात्कार की श्रेणी में रखा गया।
शादी खत्म होने के तुरंत बाद रखमाबाई ने 1889 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसीन फॉर वीमेन में दाखिला लिया। उन्होंने 1894 में स्नातक पूरा किया लेकिन वो आगे एमडी करना चाहती थीं। लंदन स्कूल ऑफ मेडिसीन उस समय तक महिलाओं को एमडी नहीं करवाता था। उन्होंने मेडिकल स्कूल के इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। इसके बाद उन्होंने ब्रसेल्स से अपनी एमडी पूरी की।
रखमाबाई भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनीं। हालांकि पति से अलग होने के उनके फैसले के कारण बहुत से लोगों से उन्हें आलोचना सुनने को मिली लेकिन वो रुकी नहीं।
रखमाबाई ने शुरू में मुंबई के कामा अस्पताल में काम किया लेकिन बाद में वो सूरत चली गईं। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए समर्पित कर दिया और 35 सालों तक प्रैक्टिस की। उन्होंने कभी दोबारा शादी नहीं की