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अनसूया साराभाई को गुजरात में श्रम आंदोलन की शुरुआत करने वाली पहली महिला के तौर पर जाना जाता है। साल 1885 में गुजरात के अहमदाबाद में के एक संभ्रांत परिवार में अनसूया का जन्म हुआ। बेहद कम उम्र में उनके माता-पिता का देहांत हो गया था जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें पाला। उस दौर की परंपरा के अनुसार, कम उम्र में उनकी शादी हो गई। जब अनसूया तेरह साल की थीं, तभी उनका विवाह हो गया था लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक चली नहीं। वो जल्दी ही अपने घर लौट आईं। इसके बाद उनके भाई अम्बालाल ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और आगे की पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया।
अनसूया अपने भाई के बहुत करीब थीं। लेकिन उस वक्त उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि उनके साथ आगे जीवन में जो होगा, उससे उनके परिवार के साथ उनके संबंधों पर तनाव पड़ेगा।
अनसूया के जीवन पर उनके लंदन प्रवास का गहरा असर पड़ा। अनसूया समाजवाद की फेबियन फिलोसॉफी से बेहद प्रभावित थीं। उस दौर में ब्रिटेन में फेबियन सोसाइटी नाम का एक समूह हुआ करता था जो गणतांत्रिक समाजवाद की बात करता था।
अनसूया चुनावों में महिलाओं के मतदान करने के हक की मांग करने वाले ब्रितानी महिला अधिकार आंदोलन में शामिल हो गईं। इस तरह के आंदोलन और चर्चाओं में शामिल होने का असर बाद में उनके जीवन पर पड़ा। अनसूया की भांजी गीता साराभाई ने उनके जीवन के बारे में लिखा है। वो बताती हैं कि इंग्लैंड प्रवास ने खुले विचारों वाली अनसूया को गंभीर चिंतक के रूप में गढ़ा। वो वहां अकेले सड़कों पर घूमती थीं, बर्नार्ड शॉ के भाषण सुनतीं, सिडनी और बीट्रिस वेब जैसे समाजवादी विचारकों की बात सुनतीं। उन्होंने बॉलरूम डांस भी सीखा और धूम्रपान भी करने लगी थीं। लेकिन बाद में अनसूया ने एक अलग जीवनशैली अपना ली और महात्मा गांधी की अनुयायी बन गईं।
भारत लौटकर शुरू किया मजदूरों के लिए काम
एक पारिवारिक समस्या के कारण अनसूया को भारत लौटना पड़ा। इसके बाद से उन्होंने कई तरह के सामाजिक कार्यक्रमों की शुरुआत की। उनके ये कार्यक्रम कालिको मिल के परिसर में रहने वाली महिला श्रमिकों और उनके बच्चों के लिए थे। कालिको मिल उनके परिवार का ही कारखाना था। उन्होंने इन दौरान 'स्त्रियो अणे तेम्ना राजकिय अधुसारो' (महिलाएं और उनके राजनीतिक अधिकार) शीर्षक से एक पैम्फलेट भी लिखा।
एक घटना ने उनकी जिंदगी को पूरी तरह बदल कर रख दिया। इस घटना के बारे में उन्होंने खुद कहा है, "एक दिन सवेरे मैंने 15 मजदूरों को देखा जो ऐसे चल रहे थे जैसे कि उनके शरीर में जान ही न बची हो। जब मैंने उनसे पूछा कि उनके साथ क्या हुआ तो उन्होंने बताया कि बहन हम अभी बिना ब्रेक के 36 घंटों की शिफ्ट पर काम कर के लौट रहे हैं। हम लगातार दो दिन एक रात काम कर रहे थे।"
मजदूरों की इस दुर्दशा का अनसूया पर बड़ा गंभीर प्रभाव पड़ा। उन्होंने कपड़ा उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को एकत्र करने और उनके अधिकारों के लिए लड़ने का फैसला किया।
जैसे-जैसे वो मजदूरों के काम करने और रहने की हालत, उनके काम करने के घंटों, ग़रीबी और उत्पीड़न के बारे में अधिक जानने लगीं उनके लिए लड़ने का उनका संकल्प और दृढ़ होता गया।
परिवार के खिलाफ जाने का फैसला
अनसूया तय कर चुकी थीं कि अगर अपने परिवार या हमेशा उनका समर्थन करने वाले अपने भाई के खिलाफ भी जाना पड़ा तो भी वो मजदूरों के अधिकारों की मांग करने से पीछे नहीं हटेंगी।
उन्होंने मजदूरों के लिए काम करने की बेहतर स्थिति और उनके लिए फिक्स्ड काम के घंटों की मांग की। इन मांगों को लेकर साल 1914 में उन्होंने 21 दिनों की लंबी हड़ताल भी की। उनके जीवन का सबसे अहम साल था 1918, जब साराभाई परिवार के क़रीबी महात्मा गांधी अनसूया के पथप्रदर्शक बन गए थे। साल 1917 के जुलाई की बात है। अहमदाबाद शहर पर प्लेग महामारी की कहर टूटा। महामारी से डर कर लोग शहर छोड़ कर भागने लगे। ऐसे में मजदूरों को पलायन करने से रोकने के लिए मिल मलिक उन्हें उनकी तन्ख्वाह में और पचास फीसदी का बोनस देने लगे। महामारी के फैलने के बीच मिल मजदूरों का काम जारी रहा।
इसके बाद जब स्थिति सामान्य हुई, मिल मालिकों ने बोनस देना बंद कर दिया, लेकिन अब तक महंगाई बढ़ चुकी थी। ऐसे में अचानक तन्ख्वाह का कम होना मिल मजदूरों के लिए बड़ा झटका था। उन्होंने अनसूया से मदद की गुहार लगाई और उनसे कहा कि वो विरोध का नेतृत्व करें और उन्हें तन्ख्वाह में पचास फीसदी का बोनस दिलवाएं।
लेकिन मिल मालिक इसके विरोध में थे। वो कामबंदी घोषित करने के लिए और मिल पर ताला लगाने के लिए तैयार थे। ऐसे में एक तरफ मिल मजदूरों ने हड़ताल कर दी तो दूसरी तरफ मिल मालिकों ने स्थिति से निपटने के लिए अपना अलग एसोसिएशन बना लिया।
एसोसिएशन का अध्यक्ष अम्बालाल साराभाई को चुना गया जो अनसूया के भाई थे। अब ये कहानी किसी फिल्मी कहानी जैसी हो गई थी जहां भाई अम्बालाल साराभाई पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए खड़े थे तो दूसरी तरफ उनकी बहन पीड़ितों के हक़ में आवाज उठा रही थीं। दोनों वैचारिक रूप से प्रतिद्वंदी बन गए थे।
अनसूया ने क़रीब 16,000 मजदूरों और बुनकरों को इकट्ठा किया। वो और महात्मा गांधी के भतीजे छगनलाल रोज सवेरे और शाम मजदूरों से मुलाक़ातें करते, उनका उत्साह बढ़ाते, उनसे सवाल करें और जरूरत पड़ने पर उनके लिए मेडिकल मदद मुहैय्या कराते। ये हड़ताल क़रीब एक महीने तक चली।
हर शाम मजदूर हाथों में प्लैकार्ड लिए मार्च निकालते। इन प्लैकार्ड पर लिखा होता - 'हम इस लड़ाई से पीछे नहीं हटेंगे।' अक्सर मार्च का नेतृत्व अनसूया खुद करती थीं। शहर के नागरिक, जो पहले मजदूरों पर नाराज होते, ये देखकर आश्चर्य में पड़ जाते कि मजदूरों ने कितने अनुशासित तरीक़े से इस हड़ताल का आयोजन किया था।
हड़ताल शुरू हुए दो सप्ताह ही हुए थे कि मिल मालिक और मजदूर, दोनों पक्ष ही बेचैन होने लगे। दोनों पक्षों का नेतृत्व करने वाले भाई-बहन एक-दूसरे के खिलाफ खड़े थे और कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। इस मुश्किल स्थिति का अनोखा हल निकाला महात्मा गांधी ने। वो मिल मजदूरों की हड़ताल का समर्थन कर रहे थे लेकिन मिल मालिक, खासकर अम्बालाल साराभाई उनकी बहुत इज्जत करते थे।
लंच के दौरान कैसे निकला हल?
गांधी जी ने अम्बालाल और अनसूया को अपने आश्रम में दोपहर के खाने के लिए आमंत्रित करना शुरू किया। रोज दोनों गांधी जी के आश्रम जाते जहां अनसूया अम्बालाल को भोजन परोसतीं। उनका ये तरीका काम कर गया और दोनों पक्ष बातचीत के लिए तैयार हो गए। आखिर में 35 फीसदी के बोनस पर दोनों पक्ष राजी हो गए।
साल 1920 में अनसूया ने मजदूर महाजन संघ नाम के संगठन की स्थापना की और इसकी पहली अध्यक्ष बनीं। साल 1927 में उन्होंने कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूरों की बेटियों के लिए कन्यागृह नाम का एक स्कूल भी खोला।
अनसूया वास्तव में एक ऐसी ट्रेड यूनियन लीडर थीं जो मिल मालिकों के घराने से ताल्लुक रखती थीं। साल 1972 में अपनी मौत से पहले वो क़रीब दो लाख मिल मजदूरों की नेता बन चुकी थीं।
अनसूया साराभाई को गुजरात में श्रम आंदोलन की शुरुआत करने वाली पहली महिला के तौर पर जाना जाता है। साल 1885 में गुजरात के अहमदाबाद में के एक संभ्रांत परिवार में अनसूया का जन्म हुआ। बेहद कम उम्र में उनके माता-पिता का देहांत हो गया था जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें पाला। उस दौर की परंपरा के अनुसार, कम उम्र में उनकी शादी हो गई। जब अनसूया तेरह साल की थीं, तभी उनका विवाह हो गया था लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक चली नहीं। वो जल्दी ही अपने घर लौट आईं। इसके बाद उनके भाई अम्बालाल ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और आगे की पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया।
अनसूया अपने भाई के बहुत करीब थीं। लेकिन उस वक्त उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि उनके साथ आगे जीवन में जो होगा, उससे उनके परिवार के साथ उनके संबंधों पर तनाव पड़ेगा।
अनसूया के जीवन पर उनके लंदन प्रवास का गहरा असर पड़ा। अनसूया समाजवाद की फेबियन फिलोसॉफी से बेहद प्रभावित थीं। उस दौर में ब्रिटेन में फेबियन सोसाइटी नाम का एक समूह हुआ करता था जो गणतांत्रिक समाजवाद की बात करता था।
अनसूया चुनावों में महिलाओं के मतदान करने के हक की मांग करने वाले ब्रितानी महिला अधिकार आंदोलन में शामिल हो गईं। इस तरह के आंदोलन और चर्चाओं में शामिल होने का असर बाद में उनके जीवन पर पड़ा। अनसूया की भांजी गीता साराभाई ने उनके जीवन के बारे में लिखा है। वो बताती हैं कि इंग्लैंड प्रवास ने खुले विचारों वाली अनसूया को गंभीर चिंतक के रूप में गढ़ा। वो वहां अकेले सड़कों पर घूमती थीं, बर्नार्ड शॉ के भाषण सुनतीं, सिडनी और बीट्रिस वेब जैसे समाजवादी विचारकों की बात सुनतीं। उन्होंने बॉलरूम डांस भी सीखा और धूम्रपान भी करने लगी थीं। लेकिन बाद में अनसूया ने एक अलग जीवनशैली अपना ली और महात्मा गांधी की अनुयायी बन गईं।
भारत लौटकर शुरू किया मजदूरों के लिए काम
एक पारिवारिक समस्या के कारण अनसूया को भारत लौटना पड़ा। इसके बाद से उन्होंने कई तरह के सामाजिक कार्यक्रमों की शुरुआत की। उनके ये कार्यक्रम कालिको मिल के परिसर में रहने वाली महिला श्रमिकों और उनके बच्चों के लिए थे। कालिको मिल उनके परिवार का ही कारखाना था। उन्होंने इन दौरान 'स्त्रियो अणे तेम्ना राजकिय अधुसारो' (महिलाएं और उनके राजनीतिक अधिकार) शीर्षक से एक पैम्फलेट भी लिखा।
एक घटना ने उनकी जिंदगी को पूरी तरह बदल कर रख दिया। इस घटना के बारे में उन्होंने खुद कहा है, "एक दिन सवेरे मैंने 15 मजदूरों को देखा जो ऐसे चल रहे थे जैसे कि उनके शरीर में जान ही न बची हो। जब मैंने उनसे पूछा कि उनके साथ क्या हुआ तो उन्होंने बताया कि बहन हम अभी बिना ब्रेक के 36 घंटों की शिफ्ट पर काम कर के लौट रहे हैं। हम लगातार दो दिन एक रात काम कर रहे थे।"
मजदूरों की इस दुर्दशा का अनसूया पर बड़ा गंभीर प्रभाव पड़ा। उन्होंने कपड़ा उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को एकत्र करने और उनके अधिकारों के लिए लड़ने का फैसला किया।
जैसे-जैसे वो मजदूरों के काम करने और रहने की हालत, उनके काम करने के घंटों, ग़रीबी और उत्पीड़न के बारे में अधिक जानने लगीं उनके लिए लड़ने का उनका संकल्प और दृढ़ होता गया।
परिवार के खिलाफ जाने का फैसला
अनसूया तय कर चुकी थीं कि अगर अपने परिवार या हमेशा उनका समर्थन करने वाले अपने भाई के खिलाफ भी जाना पड़ा तो भी वो मजदूरों के अधिकारों की मांग करने से पीछे नहीं हटेंगी।
उन्होंने मजदूरों के लिए काम करने की बेहतर स्थिति और उनके लिए फिक्स्ड काम के घंटों की मांग की। इन मांगों को लेकर साल 1914 में उन्होंने 21 दिनों की लंबी हड़ताल भी की। उनके जीवन का सबसे अहम साल था 1918, जब साराभाई परिवार के क़रीबी महात्मा गांधी अनसूया के पथप्रदर्शक बन गए थे। साल 1917 के जुलाई की बात है। अहमदाबाद शहर पर प्लेग महामारी की कहर टूटा। महामारी से डर कर लोग शहर छोड़ कर भागने लगे। ऐसे में मजदूरों को पलायन करने से रोकने के लिए मिल मलिक उन्हें उनकी तन्ख्वाह में और पचास फीसदी का बोनस देने लगे। महामारी के फैलने के बीच मिल मजदूरों का काम जारी रहा।
इसके बाद जब स्थिति सामान्य हुई, मिल मालिकों ने बोनस देना बंद कर दिया, लेकिन अब तक महंगाई बढ़ चुकी थी। ऐसे में अचानक तन्ख्वाह का कम होना मिल मजदूरों के लिए बड़ा झटका था। उन्होंने अनसूया से मदद की गुहार लगाई और उनसे कहा कि वो विरोध का नेतृत्व करें और उन्हें तन्ख्वाह में पचास फीसदी का बोनस दिलवाएं।
लेकिन मिल मालिक इसके विरोध में थे। वो कामबंदी घोषित करने के लिए और मिल पर ताला लगाने के लिए तैयार थे। ऐसे में एक तरफ मिल मजदूरों ने हड़ताल कर दी तो दूसरी तरफ मिल मालिकों ने स्थिति से निपटने के लिए अपना अलग एसोसिएशन बना लिया।
एसोसिएशन का अध्यक्ष अम्बालाल साराभाई को चुना गया जो अनसूया के भाई थे। अब ये कहानी किसी फिल्मी कहानी जैसी हो गई थी जहां भाई अम्बालाल साराभाई पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए खड़े थे तो दूसरी तरफ उनकी बहन पीड़ितों के हक़ में आवाज उठा रही थीं। दोनों वैचारिक रूप से प्रतिद्वंदी बन गए थे।
अनसूया ने क़रीब 16,000 मजदूरों और बुनकरों को इकट्ठा किया। वो और महात्मा गांधी के भतीजे छगनलाल रोज सवेरे और शाम मजदूरों से मुलाक़ातें करते, उनका उत्साह बढ़ाते, उनसे सवाल करें और जरूरत पड़ने पर उनके लिए मेडिकल मदद मुहैय्या कराते। ये हड़ताल क़रीब एक महीने तक चली।
हर शाम मजदूर हाथों में प्लैकार्ड लिए मार्च निकालते। इन प्लैकार्ड पर लिखा होता - 'हम इस लड़ाई से पीछे नहीं हटेंगे।' अक्सर मार्च का नेतृत्व अनसूया खुद करती थीं। शहर के नागरिक, जो पहले मजदूरों पर नाराज होते, ये देखकर आश्चर्य में पड़ जाते कि मजदूरों ने कितने अनुशासित तरीक़े से इस हड़ताल का आयोजन किया था।
हड़ताल शुरू हुए दो सप्ताह ही हुए थे कि मिल मालिक और मजदूर, दोनों पक्ष ही बेचैन होने लगे। दोनों पक्षों का नेतृत्व करने वाले भाई-बहन एक-दूसरे के खिलाफ खड़े थे और कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। इस मुश्किल स्थिति का अनोखा हल निकाला महात्मा गांधी ने। वो मिल मजदूरों की हड़ताल का समर्थन कर रहे थे लेकिन मिल मालिक, खासकर अम्बालाल साराभाई उनकी बहुत इज्जत करते थे।
लंच के दौरान कैसे निकला हल?
गांधी जी ने अम्बालाल और अनसूया को अपने आश्रम में दोपहर के खाने के लिए आमंत्रित करना शुरू किया। रोज दोनों गांधी जी के आश्रम जाते जहां अनसूया अम्बालाल को भोजन परोसतीं। उनका ये तरीका काम कर गया और दोनों पक्ष बातचीत के लिए तैयार हो गए। आखिर में 35 फीसदी के बोनस पर दोनों पक्ष राजी हो गए।
साल 1920 में अनसूया ने मजदूर महाजन संघ नाम के संगठन की स्थापना की और इसकी पहली अध्यक्ष बनीं। साल 1927 में उन्होंने कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूरों की बेटियों के लिए कन्यागृह नाम का एक स्कूल भी खोला।
अनसूया वास्तव में एक ऐसी ट्रेड यूनियन लीडर थीं जो मिल मालिकों के घराने से ताल्लुक रखती थीं। साल 1972 में अपनी मौत से पहले वो क़रीब दो लाख मिल मजदूरों की नेता बन चुकी थीं।